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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
दसवें प्राभृत के ग्यारहवें प्राभृतप्राभृत के विवरण में आचार्य ने लोकश्री तथा उसकी टीका का उल्लेख करते हुए उनमें से उद्धरण दिये हैं : तथा चोक्तं लोकश्रियाम् - 'पुणवसु रोहिणी चित्ता मह जेट्ठणुराह कत्तिय विसाहा | चंदस्स उभयजोगी' त्ति, अत्र 'उभयजोगी' त्ति व्याख्यानयता टीकाकृतोक्तम् - एतानि नक्षत्राणि 'उभययोगीनि' चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिन च युज्यन्ते, कदाचिद् भेदमप्युपयान्तीति । पुनर्वसु, रोहिणी, चित्रा, मघा, ज्येष्ठा, अनुराधा, कृत्तिका और विशाखा – ये आठ नक्षत्र उभययोगी हैं अर्थात् चन्द्र की उत्तर और दक्षिण दोनों दिशाओं में योग प्राप्त करने वाले हैं। तथा कभी-कभी भेद को भी प्राप्त होते हैं ।
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द्वादश प्राभृत की वृत्ति में स्वकृत शब्दानुशासन का उल्लेख है : चादयो हि पदान्तराभिहितमेवार्थं स्पष्टयति न पुनः स्वातन्त्र्येण कमप्यर्थमभिदधति इति, निर्णीतमेतत् स्वशब्दानुशासने । २ च आदि पद पदान्तर के इष्ट अर्थ को ही स्पष्ट करते हैं, स्वतन्त्ररूप से किसी अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते ।
उन्नीसवें प्राभृत के विवरण में वृत्तिकार ने जीवाभिगमचूर्णि का उल्लेख किया है तथा उसमें से अनेक उद्धरण दिये हैं । 'तुटिक' का शब्दार्थ करते हुए वृत्तिकार कहते हैं: उक्तं च जीवाभिगमचूर्णो - ' तुटिकमन्तः पुरमिति' । चन्द्रविमान से सम्बन्धित 'द्वाषष्टि' शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य कहते हैं : एतच्च व्याख्यानं जीवाभिगमचूर्ण्यादिदर्शनतः कृतम्, न पुनः स्वमनीषिकया । तथा चास्या एव गाथाया व्याख्याने जीवाभिगम चूर्णिः - चन्द्रविमानं द्वाषष्टिभागी क्रियते, ततः पञ्चदशभिर्भागो ह्रियते, तत्र चत्वारो भाषा द्वाषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते, शेषौ द्वौ भागौ, एतावद् दिने दिने शुक्लपक्षस्य राहुणा मुच्यते, इत्यादि । इसी प्राभृत की व्याख्या में तत्त्वार्थटीकाकार हरिभद्रसूरि का भी सोद्धरण उल्लेख है : आह च तत्त्वार्थटीकाकारो हरिभद्रसूरिः - ' नात्यन्तशीताश्चन्द्रमसो नाप्यत्यन्तोष्णा : सूर्याः, किन्तु साधारणा द्वयोरपी' ति ।"
अन्त के निम्न मंगल - श्लोकों के साथ प्रस्तुत विवरण की परिसमाप्ति होती है:
१. पृ० १३७ ( २ ) – १३८ ( १ ).
३. पु० २६६ ( २ ). ५. पू. २८० ( २ ).
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२. पृ० २३३ ( १ ).
४. पृ. २७८ ( २ ). ६. पू. २९७.
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