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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कंचि वायगवालब्भं सुतसागरपारगं दढचरितं । अप्पस्तो सुविहियं वंदिय सिरसा भणति सिस्सो ॥३॥ सज्झायझाणजोगस्स धीर ! जदि वो ण कोपि उवरोधो । इच्छामि ताव सोतु कालण्णाणं समासेणं ||४|| अह भणति एवभणितो उवमा विष्णाण णाणसंपण्णो । सो समणगंधहत्थी पsिहत्थी अण्णवादीणं ॥५॥ दिवसिय-रातिय-पक्खिय- चाउम्मासियत ह य वासियाणं च । णिअय पडिक्कमणाणं सज्झायस्सा वि य तदत्थे || ६ || आचार्य मलयगिरि ने यद्यपि ये गाथाएँ उद्धृत नहीं कीं किन्तु इनका भावार्थ अपनी टीका में अवश्य दिया । 'सुण ताव सूर' ( गा० १ ) की व्याख्या में वे सर्वप्रथम इन्हीं गाथाओं का भावार्थ पूर्वाचार्योपदर्शित उपोद्घात के रूप में प्रस्तुत करते हैं । वे लिखते हैं : अयमत्र पूर्वाचार्योपदर्शित उपोद्घातः कोऽपि शिष्योऽल्पश्रुत कंचिदाचार्य पूर्वगतसूत्रार्थधारकं वालभ्यं श्रुतसागरपारगतं शिरसा प्रणम्य विज्ञपयति स्म, यथा— भगवन् ! इच्छामि युष्माकं श्रुतनिधीनामन्ते यथाऽवस्थितं कालविभागं ज्ञातुमिति । तत एवमुक्ते सति आचार्य आह-शृणु वत्स ! तावदवहितो कथयामि । प्रस्तुत प्रकीर्णक सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर लिखा गया है : सूर्य प्रज्ञप्तेरिदं प्रकरणमुद्धृतम् । २ इस प्रकार प्रथम गाथा के भूमिकारूप
व्याख्यान के अनन्तर आचार्य ने कालप्रमाण आदि विषयों से सम्बन्धित आगे की गाथाओं का विवेचन प्रारम्भ किया है ।
कालविषयक संख्या का प्रतिपादन करते हुए आचार्य ने वालभी और माथुरी वाचनाओं का उल्लेख किया है और बताया है कि स्कन्दिलाचार्य के समय में एक बार दुर्भिक्ष पड़ने से साधुओं का पठन-पाठन बंद हो गया । दुर्भिक्ष का अन्त होने पर सुभिक्ष के समय एक वलभी में और एक मथुरा में इस प्रकार दो संघ एकत्रित हुए। दोनों स्थानों पर सूत्रार्थ का संग्रह करने से परस्पर वाचनाभेद हो गया। ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है क्योकि विस्मृत सूत्रार्थं का स्मरण कर-करके संघटन करने से वाचनाभेद हो ही जाता है । इस समय वर्तमान अनुयोगद्वारादिक माथुरी वाचनानुगत हैं जबकि ज्योतिष्कर ण्डक सूत्र का निर्माण करने वाले आचार्य वालभी हैं । अतः प्रस्तुत सूत्र का संख्या-स्थानप्रतिपादन वालभी वाचनानुगत होने के कारण अनुयोगद्वारप्रतिपादित संख्यास्थान से विसदृश है । वृत्तिकार के स्वयं के शब्दों में यह स्पष्टीकरण इस
१. पू. १-२.
२. पृ. २.
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