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मलयगिरिविहित वृत्तियां
३९३ वन्दे यथास्थिताशेषपदार्थप्रतिभासकम् । नित्योदितं तमोऽस्पृश्यं जैन सिद्धान्तभास्करम् ।।१।। विजयन्तां गुणगुरवो गुरवो जिनतीर्थभासनैकपराः। यद्वचनगुणादहमपि जातो लेशेन पटुबुद्धिः ॥२॥ सूर्यप्रज्ञप्तिमिमामतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलम् ।
यदवापि मलयगिरिणा साधुजनस्तेन भवतु कृती ।।३।। ज्योतिष्करण्डकवृत्ति :
प्रस्तुत वृत्ति' ज्योतिष्करण्डक प्रकीर्णक पर है । प्रारम्भ में वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि ने वीरप्रभु को नमस्कार किया है तथा ज्योतिष्करण्डक का व्याख्यान करने की प्रतिज्ञा की है :
स्पष्ट चराचरं विश्वं, जानीते यः प्रतिक्षणम् । तस्मै नमो जिनेशाय, श्री वीराय हितैषिणे ॥१॥ सम्यग्गुरुपदाम्भोजपर्युपास्तिप्रसादतः ।
ज्योतिष्करण्डकं व्यक्तं, विवृणोमि यथाऽऽगमम् ॥२॥ इसके बाद 'सुण ताव सूरपन्नत्तिवण्णणं वित्थरेण....' (गा० १) को व्याख्या प्रारम्भ को है । यहाँ पर यह जानना आवश्यक है कि ज्योतिष्करण्डक की नवीन उपलब्ध प्राकृत वृत्ति में मलयगिरिकृत प्रस्तुत वृत्ति की प्रथम गाथा 'सुण ताव सुरपन्नत्ति....' के पहले छः गाथाएँ और मिली हैं जिनमें ज्योतिकरण्डक सूत्र को रचना को भूमिका के रूप में यह बताया गया है कि शिष्य गुरु के समक्ष संक्षेप में कालज्ञान सुनने की इच्छा प्रकट करता है और गुरु उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए ज्योतिष्करण्डक के रूप में उसे कालज्ञान सुनाते है : 'इच्छामि ताव सोत कालण्णाणं समासेणं', 'सुण ताव सूरपण्णत्ति....' इत्यादि । ये गाथाएँ महत्त्वपूर्ण होने से तथा अन्यत्र उपलब्ध न होने से यहां उद्धृत की जाती हैं :
कातूण णमोक्कारं जिणवरवसभस्स वद्धमाणस्स । जोतिसकरंडगमिणं लीलावट्टीव लोगस्स ।।१।। कालण्णाणाभिगमं सुणह समासेण पागडमहत्थं ।।
णक्खत्त-चंद-सूरा जुगम्मि जोगं जध उवेंति ॥२॥ १. ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९२८. २. यह वृत्ति मुनि श्री पुण्यविजयजी के पास प्रतिलिपि के रूप में
विद्यमान है।
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