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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
शब्दार्थ की व्याख्या करते हैं और उस अर्थ का स्पष्ट निर्देश कर देते हैं । तदनन्तर विशेष स्पष्टीकरण अथवा विस्तृत विवेचन की आवश्यकता प्रतीत होने पर 'अयं भावः, किमुक्तं भवति, अयमाशयः, इदमत्र हृदयम्' इत्यादि पदों के साथ सम्पूर्ण अभीष्टार्थ स्पष्ट कर देते हैं। विषय से सम्बद्ध अन्य प्रासंगिक विषयों की चर्चा करना तथा तद्विषयक प्राचीन प्रमाणों का उल्लेख करना भी आचार्य मलयगिरि की एक बहुत बड़ी विशेषता है। आगे मलयगिरिकृत प्रकाशित टोकाओं का परिचय दिया जाता है । नंदोवृत्ति:
आचार्य मलयगिरिकृत प्रस्तुत वृत्ति' दार्शनिक वाद-विवाद से परिपूर्ण है । यही कारण है कि इसका विस्तार भी अधिक है। इसमें यत्र-तत्र उदाहरण के रूप में संस्कृत कथानक भी दिये गये हैं। प्राकृत एवं संस्कृत उद्धरणों का भी अभाव ही है। प्रारंभ में आचार्य ने वर्धमान जिनेश्वर एवं जिन-प्रवचन का सादर स्मरण किया है :
जयति भुवनैकभानुः सर्वत्राविहतकेवलालोकः । नित्योदितः स्थिरस्तापजितो वर्धमानजिनः ॥ १॥ जयति जगदेकमंगलमपहतनिःशेषदुरितघनतिमिरम् ।
रविबिम्बमिव यथास्थितवस्तुविकाशं जिनेशवचः ।। २ ।। वृत्तिकार ने नन्दी का शब्दार्थ इस प्रकार बताया है : अथ नन्दिरिति कः शब्दार्थः ? उच्यते-'टुनदु' समद्धावित्यस्य 'धातोरुदितो नम्' इति नमि विहिते नन्दनं नन्दिः प्रमोदो हर्ष इत्यर्थः, नन्दिहेतृत्वात् ज्ञानपंचकाभिधायकमध्ययनमपि नन्दिः, नन्दन्ति प्राणिनोऽनेनास्मिन् वेति वा नन्दिः इदमेव प्रस्तुतमध्ययनम् ।""अपरे तु नन्दीति पठन्ति, ते च 'इक कृष्यादिभ्यः' इति सूत्रादिकप्रत्ययं समानीय स्त्रीत्वेऽपि वर्त्तयन्ति ततश्च 'इतोउक्त्यर्थात्' इति ङीप्रत्ययः ।२ 'टुनदु' धातु से 'समृद्धि' अर्थ में 'धातोरुदितो नम्' सूत्र से 'नम्' करने पर 'नन्दि' बनता है जिसका अर्थ है प्रमोद, हर्ष आदि । नन्दि-प्रमोद-हर्ष का कारण होने से ज्ञानपंचक का कथन करनेवाला अध्ययन भी 'नन्दि' कहलाता है। अथवा जिसके द्वारा या जिसमें प्राणी प्रसन्न रहते हैं वह 'नन्दि' है। यही प्रस्तुत अध्ययन-ग्रंथ है। कुछ लोग इसे 'नन्दी' कहते हैं ।
१. (अ) रायबहादुर धनपतसिंह, बनारस, वि० सं० १९३३.
(आ) आगमोदय समिति, ग्रं० १६, बम्बई, सन् १९२४. २. आगमोदय-संस्करण, पृ० १.
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