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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास विपाकवृत्तिः
वृत्ति के प्रारंभ में आचार्य ने वर्धमान को नमस्कार किया है तथा विपाक सूत्र की वृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है :
नत्वा श्रीवर्धमानाय वर्धमानश्रुताध्वने । विपाकश्रुतशास्त्रस्य वृत्तिकेयं विधास्यते ।।
तदनन्तर अपनी अन्य वृत्तियों की शैली का अनुसरण करते हुए 'विपाकश्रुत' का शब्दार्थ बताया है : अथ 'विपाकश्रुतम्' इति कः शब्दार्थः ? उच्यते-विपाकः पूण्यपापरूपकर्मफलं तत्प्रतिपादनपरं श्रुतमागमो विपाकश्रुतम् । इदं च द्वादशांगस्य प्रवचनपुरुषस्यकादशमंगम् । विपाक का अर्थ है पुण्य-पापरूप कर्मफल । उसका प्रतिपादन करने वाला श्रुत अर्थात् आगम विपाकश्रुत कहलाता है। यह श्रुत द्वादशांगरूप प्रवचनपुरुष का ग्यारहवां अंग है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के पंचम सूत्र 'से णं भंते ! पुरिसे पूव्वभवे के आसि......तत्थ णं विजयवद्धमाणे खेडे एक्काई नाम रट्रकडे होत्या...' की व्याख्या में वृत्तिकार ने रट्टकूड-रट्टउड-राष्ट्रकूट अथं इस प्रकार किया है : 'रट्टउडे' त्ति राष्ट्रकूटो मण्डलोपजीवी राजनियोगिकः । इसी प्रकार आचार्य ने अन्य परिभाषिक पदों का भी संक्षिप्त एवं संतुलित अर्थ किया है । अन्त में अन्य वृत्तियों की भांति इसमें भी वृत्तिकार ने विद्वानों से वृत्तिगत त्रुटियाँ शोधने की प्रार्थना की है :
इहानुयोगे यदयुक्तमुक्तं तद् धीधना द्राक् परिशोधयन्तु। नोपेक्षणं युक्तिमदत्र येन जिनागमे भक्तिपरायणानाम् ॥
१. (अ) रायबहादुर धनपतसिंह, कलकत्ता, सन् १८७६.
(आ) आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२०. (इ) मुक्तिकमल जैन मोहनलाला, बड़ौदा, सन् १९२० ( प्रथम आवृत्ति ),
वि. सं. १९९२ ( द्वितीय आवृत्ति ). (ई) गूर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, गाँधी रोड, अहमदाबाद, सन् १९३५ ( मूल,
मूल का अंग्रेजी अनुवाद, टिप्पण आदि सहित ). २. बड़ौदा-संस्करण ( द्वितीय ) पृ० १० (१). ३. पृ० ९९ (१).
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