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अभयदेवविहित वृत्तियाँ
निवृ' तककुलनभस्तलचन्द्रद्रोणाख्यसूरिमुख्येन । पंडितगुणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् ॥ १० ॥ प्रत्यक्षरं गणनया, ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । अनुष्टभां सहस्राणि त्रीण्येवाष्टशतानि च ॥ ११ ॥ एकादशसु शतेष्वथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् । अहिलपाटकनगरे विजयदशम्यां च सिद्धेयम् ॥ १२ ॥ उपासकदशां गवृत्ति:
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यह वृत्ति' सूत्रस्पर्शी है । इसमें सूत्रगत विशेष शब्दों के अर्थ आदि का स्पष्टीकरण किया गया है । ज्ञाताधर्मकथा की टीका की ही भाँति शब्दार्थ - प्रधान होने के कारण इसका विस्तार अधिक नहीं है । यह वृत्ति ज्ञाताधर्मकथा की वृत्ति के बाद लिखी गई है । प्रारम्भ में वर्धमान को नमस्कार किया गया है तथा उपा सकदशांग की व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की गई है । इसके बाद टीकाकार ने सप्तम अंग ' उपासकदशा' का शब्दार्थ किया है । उपासक का अर्थ है श्रमणोपासक और दशा का अर्थ है दस । श्रमणोपासक - सम्बन्ध अनुष्ठान का प्रतिपादन करनेवाला दस अध्ययनरूप ग्रंथ उपासकदशा है । इस ग्रंथ का नाम बहुवचनान्त है । प्रस्तुत वृत्ति में भी आचार्य ने कहीं-कहीं व्याख्यान्तर का निर्देश किया है । अनेक जगह ज्ञाता कथा की व्याख्या से अर्थ समझ लेने के लिए कहा है । अन्त में वृत्तिकार कहते हैं कि सब मनुष्यों को प्रायः अपना वचन जो खुद को भी अच्छी तरह पसंद नहीं आता वह दूसरों को है ? मैंने अपने चित्त के किसी उल्लास विशेष के कारण यहाँ कुछ कहा है । उसमें जो कुछ युक्तियुक्त हो उसे निर्मल वुद्धिवाले पुरुष प्रेमपूर्वक स्वीकार करें । अन्तकृद्दशावृत्ति :
अभिमत होता है । कैसे पसंद आ सकता
यह वृत्ति भी सूत्रस्पर्शी एवं शब्दार्थप्रधान है । अव्याख्यात पदों के अर्थ के लिए वृत्तिकार ने ज्ञाताघमंकथाविवरण का निर्देश किया है । 'अन्तकृद्दशा' का
१. ( अ ) रायबहादुर घनपतसिंह, कलकत्ता, सन् १८७६.
( आ ) आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२०.
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(इ) केवल गुजराती अनुवाद - पं० भगवानदास हर्षचन्द्र जैन सोसायटी, अहमदाबाद, वि० सं० १९९२.
२. ( अ ) रायबहादुर धनपतसिंह, कलकत्ता, सन् १८७५.
( आ ) आगमोदय समिति, सूरत, सन् १९२०.
(इ) गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, गांधी रोड, अहमदाबाद, सन् १९३२.
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