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अभयदेवविहित वृत्तियाँ
३७७ सिवसाहणेसु आहारविरहिओ जं न वट्टए देहो । तम्हा धणो व्व विजयं साहू तं तेण पोसेज्जा ॥ १॥ ( शिवसाधनेषु आहारविरहितो यन्न प्रवर्तते देहः ।
तस्मात् धन इव विजयं साधुस्तत् तेन पोषयेत् ।। १॥) तृतीय अध्ययन का सार बताते हुए वृत्तिकार लिखते हैं कि बुद्धिमान को 'जिनवरभाषित वचनों में संदेह नहीं करना चाहिए क्योंकि इस प्रकार का सन्देह अनर्थ का कारण है। जो जिनवचनों में हमेशा शंकित रहता है उसे सागरदत्त को भांति निराश होना पड़ता है । जो निःशंकित होकर जिनवचनानुकूल आचरण करता है उसे जिनदत को तरह सफलता प्राप्त होती है। निम्न गाथाओं में यही बताया गया है :
जिणवरभासियभावेसु भावसच्चेसु भावओ मइमं । नो कुज्जा संदेहं संदेहोऽणत्थहेउत्ति ॥ १ ॥ निस्संदेहत्तं पुण गुणहेउ जं तओ तयं कज्जं । एत्थं दो सिट्ठिसुया अंडयगाही उदाहरणं ॥ २॥ ( जिनवरभाषितेषु भावेषु भावसत्येषु भावती मतिमान् । न कुर्यात् संदेहं सन्देहोऽनर्थहेतुरिति ॥ १ ॥ निस्सन्देहत्वं पुनर्गुणहेतुर्यत्ततस्तत् कार्य ।।
अत्र द्वौ श्रेष्ठिसुतौ अण्डकग्राहिणावुदाहरणम् ।। २॥) प्रथम श्रुतस्कन्ध के शेष अध्ययनों के विवरण के अन्त में भी इसी प्रकार की अभिधेयार्थग्राही गाथाएँ हैं। इस श्रुतस्कन्ध में धर्मार्थ का कथन साक्षात् कथाओं से न होकर उदाहरणों के माध्यम से है जबकि द्वितीय श्रुतस्कन्ध में साक्षात् धर्मकथाओं से ही धर्मार्थ का वर्णन किया गया है : पूर्वत्राप्तोपालम्भादिभितिधर्मार्थ उपनीयते, इह तु स एव साक्षात्कथाभिरभिधीयते। इसमें धर्मकथाओं के दस वर्ग है और प्रत्येक वर्ग में विविध अध्ययन हैं। विवरणकार ने 'सर्वः सुगमः' और 'शेषं सूत्रसिद्धम्' ऐसा लिखते हुए इन अध्ययनों का व्याख्यान चार पंक्तियों में ही समाप्त कर दिया है। अन्त के श्लोकों में आचार्य अभयदेव ने अपने गुरु का नाम जिनेश्वर बताया है तथा प्रस्तुत विवरण के संशोधक के रूप में निर्वृतककुलोन द्रोणाचार्य के नाम का उल्लेख किया है।
१. पृ० ९५ (२).
२. पृ० २४६ (१).
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