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अभयदेवविहित वृत्तियां
दुःसम्प्रदायादसदूहनाद्वा, भणिष्यते यद्वितथं मयेह ।
तद्धीधनैर्मामनुकम्पयद्भिः, शोध्यं मतार्थक्ष तिरस्तु मैव ।। २ ।। समवायांग का अर्थ बताते हुए वृत्तिकार कहते हैं :
'समिति-सम्यक्, अवेत्याधिक्येन, अयनमयः-परिच्छेदो जीवाजीवादिविविधपदार्थसार्थस्य यस्मिन्नसौ समवायः, समवयन्ति वासमवतरन्ति संमिलन्ति नानाविधा आत्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसौ समवाय इति । स च प्रवचनपुरुषस्याङ्गमिति समवायाङ्गम् ।'
'समवाय' में तीन पद हैं : 'सम्', 'अव' और 'अय' । 'सम्' का अर्थ है सम्यक, 'अव' का अर्थ है आधिक्य और 'अय' का अर्थ है परिच्छेद । जिसमें जीवाजीवादि विविध पदार्थों का सविस्तर सम्यक विवेचन है वह समवाय है। अथवा जिसमें आत्मादि नाना प्रकार के भावों का अभिधेयरूप से समवायसमवतार-संमिलन है वह समवाय है। वह प्रवचनपुरुष का अंगरूप होने से समवायांग है।
प्रथम सूत्र का व्याख्यान करते हुए टीकाकार ने एक जगह पाठान्तर भी दिया है । 'जंबुद्दोवे दीवे एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं' के स्थान पर 'जंबुद्दीवे दीवे एगं जोयणसयसहस्सं चक्कवालविक्खंभेणं' ऐसा पाठ भी मिलता है : नवरं जंबुद्दीवे' इह सूत्रे 'आयामविक्खंभेणं ति क्वचित् पाठो दश्यते । क्वचितु 'चक्कवालविक्खंभेणं'ति । इन पाठों का अर्थ करते हए आचार्य कहते है : तत्र प्रथमः सम्भवति, अन्यत्रापि तथा श्रवणात्, सुगमश्च, द्वितीयस्त्वेवं व्याख्येयः-चक्रवालविष्कम्भेन वृत्तव्यासेन ।' प्रथम पाठ सम्भव है क्योंकि यह अन्यत्र भी उपलब्ध है। अर्थ सुगम है । द्वितीय पाठ का अर्थ है वृत्तव्यास ।
वृत्ति में अनेक स्थानों पर प्रज्ञापना सूत्र का उल्लेख है तथा एक जगह गन्धहस्ती ( भाष्य ) का भी उल्लेख है : गन्धहस्त्यादिष्वपि तथैव दृश्यते, प्रज्ञापनायां त्वेकत्रिंशदुक्तेति मतान्तरमिदं । यह वृत्ति वि० सं० ११२० में अणहिलपाटक ( पाटन ) में लिखी गई। इसका ग्रंथमान ३५७५ श्लोकप्रमाण
शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृतिः कृता । श्रीमतः समवायाख्यतुर्याङ्गस्य समासतः ॥७॥
१. अहमदाबाद-संस्करण, पृ० १, २. पृ० ५ (२). ३. वही. ३. पृ. १३० (१). ४. पृ. १४८.
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