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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास स्थानांगवृत्ति :
प्रस्तुत वृत्ति स्थानांग के मूल सूत्रों पर है। यह वृत्ति शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है । इसमें सूत्र सम्बद्ध प्रत्येक विषय का आवश्यक विवेचन एवं विश्लेषण भी है। विश्लेषण में दार्शनिक दृष्टि की स्पष्ट झलक है। प्रारम्भ में आचार्य ने भगवान् महावीर को नमस्कार किया है तथा स्थानांग का विवेचन करने की प्रतिज्ञा की है :
श्रीवोरं जिननाथं नत्वा स्थानाङ्गकतिपयपदानाम् । प्रायोऽन्यशास्त्रदृष्टं करोम्यहं विवरणं किञ्चित् ।।
मंगल का आवश्यक विवेचन करने के बाद सूत्रस्पशिक विवरण प्रारम्भ किया है। 'एगे आया' (अ. १ सू. २) का व्याख्यान करते हुए वृत्तिकार ने अनेक दृष्टियों से आत्मा को एकता-अनेकता को सिद्धि को है। अपने वक्तव्य की पुष्टि के लिए जगह-जगह 'तथाहि, 'यदुक्तम्, 'तथा, 'उक्तञ्च, 'आह च, 'तदुक्तम्, 'यदाह' आदि शब्दों के साथ अनेक उद्धरण दिये है। आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की सिद्धि करते हुए विशेषावश्यकभाष्य को एतद्विषयक अनेक गाथाएँ उद्धृत की हैं । आत्मा को अनुमानगम्य बताते हुए टीकाकार कहते हैं : तथाऽनुमानगम्योऽप्यात्मा तथाहि-विद्यमानकर्तकमिदं शरीरं भोग्यत्वाद, ओदनादिवत्, व्योमकुसुमं विपक्षः, स च कर्ता जीव इति, नन्वोदनकर्तृवन्मूर्त आत्मा सिद्ध्यतीति साध्यविरुद्धो हेतुरिति, नैवं, संसारिणो मूर्त्तत्वेनाप्यभ्युपगमाद्, आह च-..." अनुमान से भी आत्मा की सिद्धि होती है वह अनुमान इस प्रकार है : इस शरीर का कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए क्योंकि यह भोग्य है । जो भोग्य होता है उसका कोई कर्ता अवश्य होता है जैसे ओदनभात का कर्ता रसोइया। जिसका कोई कर्ता नहीं होता वह भोग्य भी नहीं होना जैसे आकाश-कुसुम । इस शरीर का जो कर्ता है वही आत्मा है। यदि कोई यह कहे कि रसाइये की तरह आत्मा को भी मूर्तता सिद्ध होती है और ऐसी दशा में प्रस्तुत हेतु साध्यविरुद्ध हो जाता है तो ठीक नहीं क्योकि संसारी आत्मा कथ
१. (अ) आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१८-२०.
( आ ) रायबहादुर धनपतसिंह, बनारस, सन् १८८०. (इ) माणेकलाल चुनीलाल व कान्तिलाल चुनीलाल, अहमदाबाद,
सन् १९३७ ( द्वितीय संस्करण ). २. अहमदाबाद-संस्करण, पृ० १० (२).
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