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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
बृहत्कल्पचूर्णिकार प्रलंबसूरि के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालने वाली कोई - सामग्री उपलब्ध नहीं है । ताड़पत्र पर लिखित प्रस्तुत चूर्णि की एक प्रति का लेखन - समय वि० सं० १३३४ है । अतः इतना निश्चित है कि प्रलंबसूरि वि० • सं० १३३४ के पहले हुए हैं। हो सकता है कि ये चूर्णिकार सिद्धसेन के समकालीन हों अथवा उनसे भी पहले हुए हों ।
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दशवैका लिकचूर्णिकार अगस्त्य सिंह कोटिगणीय वज्रस्वामी की शाखा के एक स्थविर हैं । इनके गुरु का नाम ऋषिगुप्त है । इनके समय आदि के विषय में प्रकाश डालने वाली कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है । हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इनकी चूणि अन्य चूर्णियों से विशेष प्राचीन नहीं है । इसमें तत्त्वार्थसूत्र आदि के संस्कृत उद्धरण भी हैं । चूर्णि के प्रारंभ में ही 'सम्यग्दर्शनज्ञान" ( तत्त्वा० अ० १ सू० १ ) सूत्र उद्धृत किया गया है । शैली आदि की दृष्टि से चूर्णि सरल है ।
१. जैन ग्रंथावली, पृ० १२-३, टि० ५.
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