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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आदि सोलह प्रकार के नपुंसकों का वर्णन भी आचार्य ने विस्तार से किया है । व्याधित पुरुष का स्वरूप बताते हुए सोलह प्रकार के रोग एवं आठ प्रकार की व्याधि के नामों का उल्लेख किया है। व्याधि का नाश शीघ्र हो सकता है जबकि रोग का नाश देर से होता है : आशुघातित्वाद् व्याधिः, चिरघातित्वाद् रोगः....३ ___ बालमरण, पंडितमरण आदि के विस्तृत विवेचन के साथ प्रस्तुत उद्देश को चूणि समाप्त होती है। द्वादश उद्देश : ___इस उद्देश की चूणि में चतुर्लघु प्रायश्चित्त के योग्य दोषों का वर्णन किया गया है । इन दोषों में मुख्यतः त्रस प्राणिविषयक बन्धन और मुक्ति, प्रत्याख्यानभंग, सलोम चर्मोपयोग, तृणादिनिर्मित पीठक का अधिष्ठान, निर्ग्रन्थी के लिए निर्ग्रन्थ द्वारा संघाटी सिलाने की व्यवस्था, पुरःकर्मकृत हस्त से आहारादि का ग्रहण, शीतोदकयुक्त हस्तादि से आहारादि का ग्रहण, चक्षुरिन्द्रिय की तुष्टि के लिए निर्झर आदि का निरीक्षण, प्रथम प्रहर के समय आहारादि का ग्रहण, व्रण पर गोमय-गोबर का लेप आदि का समावेश है। त्रयोदश उद्देश :
इस उद्देश में भी चतुर्लधु प्रायश्चित्त के योग्य दोषों का विचार किया गया है। स्निग्ध पृथ्वी, शिला आदि पर कायोत्सर्ग करना, गृहस्थ आदि को परुष बचन सुनाना, उन्हें मंत्र आदि बताना, लाभ की बात बता कर प्रसन्न करना, हानि की बात बताकर खिन्न करना, धातु आदि के स्थान बताना, वमन करना, विरेचन लेना, आरोग्य के लिए प्रतिकम करना, पाश्वस्थ को वंदन करना, पार्श्वस्थ की प्रसंसा करना, कुशील को वंदन करना, कुशील की प्रशंसा करना धात्रीपिंड का भोग करना, दूतीपिंड का भोग करना, निमित्तिपिंड का भोग करना, चिकित्सापिंड का भोग करना, क्रोधादिपिंड का भोग करना आदि कार्य चतुर्लघु प्रायश्चित्त के योग्य हैं। प्रस्तुत उद्देश के अन्त में निम्न गाथा में चूर्णिकार के पिता का नाम दिया हुआ है :
संकरजडमउडविभूसणस्स तण्णामसरिसणामस्स।
___ तस्स सुतेणेस कता, विसेसचुण्णी णिसीहस्स ॥ चतुर्दश उद्देश :
इस उद्देश में भी उपयुक्त प्रायश्चित्त के योग्य अन्य विषयों पर प्रकाश डाला गया है। पात्र खरीदना, अतिरिक्त पात्रों का संग्रह करना, पात्र ठीक तरह १. पृ. २४०. २. पृ. २५८. ३ वही. ४. पृ० ४२६.
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