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निशीथ-विशेषचूर्णि
३१७ से न रखना, वर्णयुक्त पात्र को विवर्ण बनाना, विवर्ण पात्र को वर्णयुक्त करना, पुराने पात्र से छुटकारा पाने की अनुचित कोशिश करना, सचित्त आदि भूमि पर पात्र रखना इत्यादि पात्रविषयक अनेक दोषों का दिग्दर्शन कराते हुए आचार्य ने एतत्सम्बन्धी आवश्यक यातनाओं का यत्र-तत्र उल्लेख किया है। पंचदश उद्देश :
साधु को सचित्त आम आदि खाने की मनाही करते हुए आचार्य ने आम्र का नामादि निक्षेपों से व्याख्यान किया है। द्रव्याघ्र चार प्रकार का है : उस्सेतिम, संसेतिम, उवक्खड और पलिय । इन चारों प्रकार के आमों का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने पलिय आम के पुनः चार विभाग किये हैं : इन्धनपलियाम, धूमपलियाम, गंधपलियाम और वृक्षपलियाम । इनके स्वरूप पर भी प्रस्तुत उद्देश में प्रकाश डाला गया है। इसी प्रसंग पर तालप्रलम्ब आदि के ग्रहण को विधि का साधु और साध्वी दोनों की दृष्टि से विचार किया गया है। इसी प्रकार अन्य सूत्रों का भी यथाविधि व्याख्यान किया गया है। अन्त में निम्नोक्त गाथा में चूर्णिकार की माता का नाम दिया हुआ है : ।
रतिकरमभिधाणऽक्खरसत्तमवग्गंतअक्खरजुएणं ।
णामं जस्सित्थीए, सुतेण तस्से कया चुण्णी ॥ षोडश उद्देश : __ पन्द्रहवें उद्देश में देहविभूषाकरण और उज्ज्वलोपधिधारण का निषेध किया गया है जिससे कि ब्रह्मवत की विराधना न हो। सोलहवें उद्देश में भी अगुप्ति अथवा ब्रह्मविराधना न हो इसी दृष्टि से सागारिकवसति का निषेध किया गया है । इस उद्देश के प्रथम सूत्र 'जे भिक्खू सागरियसेज्जं अणुपविसइ........" का व्याख्यान करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि जो सागारिकवसति ग्रहण करता है उसे आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं और उसके लिए चतुलंघु प्रायश्चित्त का विधान है : सह आगारीहिं सागारिया, जो तं गेण्हति वसहि तस्स आणादी दोसा, चउलह च से पच्छित्तं । 'सागारिक' शब्द का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि जहाँ निवास करने से मैथुन का उद्भव होता है वह सागारिकवसति है। वहाँ के लिए चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है । अथवा जहाँ स्त्रीपुरुष रहते हैं वह सागारिकवसति है। वहाँ के लिए भी चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है ::." जत्थ वसहीये ठियाणं मेहुणब्भवो भवति सा सागारिका, तत्थ चउगुरुगा।
१. पृ० ४८४-५.
२. पृ० ५९४.
३. चतुर्थ भाग, पृ० १
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