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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'सु प्रशंसायां निपातः, खानीन्द्रियाणि, शोभनानि खानि यस्य स सुखः शुद्धेन्द्रिय इत्यर्थः। शुद्धानि प्रशस्तानि वश्यानीन्द्रियाणि यस्य एतद्विपरीतः असुखः अजितेन्द्रिय इत्यर्थः'
प्रस्तुत विवरण की समाप्ति करते हुए वृत्तिकार कहते हैं :
.... चेति परमपूज्यजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणकृतविशेषावश्यकप्रथमाध्ययनसामायिकभाष्यस्य विवरणमिदं समाप्तम् ।'२
इसके बाद प्रस्तुत प्रति के लेखक ने अपनी ओर से निम्न वाक्य जोड़ा है :
'सूत्रकारपरमपूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रारब्धा समर्थिता श्रीकोट्याचार्यवादिगणिमहत्तरेण श्रोविशेषावश्यकलघुवृत्तिः।'
तदनन्तर लेखन के समय तथा स्थान का उल्लेख किया है : 'संवत् १४९१ वर्षे द्वितीयज्येष्ठवदि ४ भूमे श्रीस्तम्भतीर्थे लिखितमस्ति ।'
उपयुक्त प्रथम वाक्य से स्पष्ट है कि प्रति-लेखक ने वृत्तिकार जिनभद्र का नाम तो ज्यों का त्यों रखा किन्तु कोट्यार्य का नाम बदलकर कोट्याचार्य कर दिया। इतना ही नहीं, उनके नाम के साथ महत्तर की उपाधि और लगा दी। परिणामतः कोट्यार्यवादिगणि कोट्यार्यवादिगणिमहत्तर हो गये। इसी के साथ लेखक ने विशेषावश्यकभाष्यविवरण का नाम भी अपनी ओर से विशेषावश्यकलघु वृत्ति रख दिया है।
१. पृ० ९४२ (हस्तलिखित).
२. पृ० ९८७ (हस्तलिखित).
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