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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास राज्य करता था। हरिभद्र इसी राजा के राज-पुरोहित थे। पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित होने तथा अनेक विद्याओं में पारंगत होने के कारण इनका सर्वत्र समादर होता था। इस समादर तथा प्रतिष्ठा के कारण हरिभद्र को कुछ अभिमान हो गया था। वे समझने लगे कि इस समस्त भूखण्ड पर कोई ऐसा पंडित नहीं जो मेरी-अरे मेरी क्या, मेरे शिष्य की भी बराबरी कर सके। हरिभद्र अपने हाथ में जम्बू वृक्ष की एक शाखा रखते थे जिससे यह प्रकट हो सके कि समस्त जम्बूद्वीप में उनके जैसा कोई नहीं है। इतना ही नहीं, वे अपने पेट पर एक स्वर्णपट्ट भी बांधे रहते थे जिससे लोगों को यह मालूम हो जाता कि उनमें इतना ज्ञान भरा हुआ है कि पेट फटा जा रहा है। हरिभद्र ने एक प्रतिज्ञा भी कर रखी थी कि 'जिसके कथन का अर्थ मैं न समझ सकेंगा उसका शिष्य बन जाऊँगा।'
एक दिन पुरोहितप्रवर हरिभद्र भट्ट पालकी पर चढ़ कर बाजार में घूमने लगे । पालकी के आगे-पीछे 'सरस्वतीकण्ठाभरण', वैयाकरणप्रवण', 'न्यायविद्याविचक्षण', 'वादिमतंगजकेसरी', 'विप्रजननरकेसरी' इत्यादि विरुदावली गूंज रही थी। मार्ग में सर्वत्र शान्ति थी। अकस्मात् लोगों में भगदड़ चालू हो गई । चारों ओर से 'भागो, दौड़ो, पकड़ो' की आवाज आने लगी। हरिभद्र ने पालकी से मुँह निकाल कर देखा तो मालूम हुआ कि एक प्रचण्ड कृष्णकाय हाथी पागल हो गया है और लोगों को रौंदता हुआ बढ़ता चला आ रहा है। यह देखकर पालकी उठाने वाले लोग भी भाग खड़े हुए। हरिभद्र और कोई उपाय न देखकर पालकी से निकलते ही पास ही के एक जिनमंदिर में घुस गये। इसी समय उन्हें 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेद जैनमन्दिरम्' की निरर्थकता का अनुभव हुआ। मंदिर में स्थित जिनप्रतिमा को देखकर उसका उपहास करते हुए कहने लगे-“वपुरेव तवाऽऽचष्टे स्पष्टं मिष्ठान्नभोजनम् ।"
एक दिन भट्ट हरिभद्र राजमहल से अपने घर की ओर लौट रहे थे। मार्ग में एक जैन उपाश्रय था । उपाश्रय पर बैठ कर साध्वियां स्वाध्याय कर रही थीं। संयोग से आज भट्टजी के कानों में एक गाथा--आर्या की ध्वनि पहुँची ।' उन्होंने उसका अर्थ समझने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु सफलता न मिली। भट्टजी बोले-"माताजी! आपने तो इस गाथा में खूब चकचकाट किया।" साध्वी ने बड़ी नम्रता एवं कुशलता के साथ उत्तर दिया : 'श्री नन् ! नया-नया तो ऐसा ही लगता है। यह सुनकर भट्टजी का मिथ्या अभियान मिट गया। उन्हें अपनी
१. चक्कीदुगं हरिपणगं पणगं चक्कोण केसवो चक्की ।
केसव चक्की केसव दु चक्की केसव चक्की य ॥
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