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हरिभद्रकृत वृत्तियाँ
३४१ सप्तम अध्ययन की व्याख्या में भाषा की शुद्धि-अशुद्धि का विचार किया गया है एवं श्रमण के लिए उपयुक्त भाषा का विधान स्पष्ट किया गया है ।
अष्टम अध्ययन की व्याख्या में आचारप्रणिधि की प्रक्रिया एवं फल का प्रतिपादन किया गया है।
नवम अध्ययन की वृत्ति में विनय के विविध रूप, विनय का फल, आचारसमाधि आदि का स्वरूप बताया गया है।
दशम अध्ययन की वृत्ति में सुभिक्षु के स्वरूप पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
चूलिकाओं को व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने धर्म के रतिजनक और अरतिजनक कारण, विविध चर्या आदि उन्हीं विषयों का साधारण स्पष्टीकरण किया है जिनका उल्लेख सूत्रकार और नियुक्तिकार ने किया है। वृत्ति के अन्त में निम्न श्लोक हैं :
महत्तराया याकिन्या धर्मपुत्रेण चिन्तिता । आचार्यहरिभद्रेण टीकेयं शिष्यबोधिनी ॥ १ ॥ दशवैकालिके टीकां विधाय यत्पुण्यमजितं तेन ।
मात्सर्यदुःखविरहाद्गुणानुरागी भवतु लोकः ॥ २ ॥ प्रज्ञापना-प्रदेशव्याख्या :
इस टीका के प्रारम्भ में जैन प्रवचन की महिमा बताते हुए कहा गया है : रागादिवध्यपटहः सुरलोकसेतुरानन्ददुदुभिरसत्कृतिवंचितानाम् । संसारचारकपलायनफालघंटा, जैनंवचस्तदिह को न भजेत विद्वान् ॥ १ ॥ __इसके बाद मंगल की महिमा बताई गई है और मंगल के विशेष विवेचन के लिए आवश्यक-टीका का नामोल्लेख किया गया है। इसी प्रसंग पर भव्य और अभव्य का विवेचन करते हुए आचार्य ने बादिमुख्यकृत अभव्यस्वभावसूचक निम्न श्लोक उद्धृत किया है : सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेषु सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥ १॥ १. १० २८६. २. पूर्वभाग-ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन्
१९४७.
उत्तरभाग-जैन पुस्तक प्रचारक संस्था, सूर्यपुर, सन् १९४९. ३. पृ. २. ४. पृ. ४.
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