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हरिभद्रकृत वृत्तियाँ
३४३ च्छब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायते अनयेति ओघसंज्ञा, तथा तद्विशेषावबोधक्रियैव संज्ञायते अनयेति लोकसंज्ञा, ततश्चौघसंज्ञा दर्शनोपयोगः लोकसंज्ञातु ज्ञानोपयोग इति, व्यत्ययमन्ये, अन्ये पुनरित्थमभिदधते-सामान्यप्रवृत्तिरोघसंज्ञा, लोकदृष्टिर्लोकसंज्ञा...........'' इन संज्ञाओं का मनोविज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्त्व है । आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से संज्ञा का ज्ञान और संवेदन में और क्रिया का अभिव्यक्ति और प्रवृत्ति में समावेश कर सकते हैं। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से आचार्य ने ओघसंज्ञा को दर्शनोपयोग और लोकसंज्ञा को ज्ञानोपयोग कहा है तथा तद्विपरीत मत का भी उल्लेख किया है।
नवम पद की व्याख्या में विविध योनियों का विचार किया गया है ।
दशम पद की व्याख्या में रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों का चरम और अचरम की दृष्टि से विवेचन किया गया है। चरम का अर्थ है प्रान्तपर्यन्तवर्ती और अचरम का अर्थ है प्रांतमध्यवर्ती । ये दोनों अर्थ आपेक्षिक हैं । प्रस्तुत विवेचन में आचार्य ने अनेक प्राकृत गद्यांश उद्धृत किये हैं। ___ ग्यारहवें पद की व्याख्या में भाषा के स्वरूप का विवेचन करते हुए आचार्य ने स्त्री, पुरुष और नपुंसक-लक्षणनिर्देशक कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं :२ स्त्रा- योनिमृदुत्वमस्थैर्य, मुग्धता क्लीबता स्तनौ ।
पुस्कामितेति लिंगानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥१॥ पुरुष- मेहनं खरता दाय, शौंडीयं श्मश्रु तृप्तता।।
- स्त्रीकामितेति लिंगानि, सप्त पुस्त्वे प्रचक्षते ॥ २॥ नपुंसक-स्तनादिश्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् ।
नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥ ३ ॥ स्त्री के सात लक्षण हैं : योनि, मृदुत्व, अस्थिरता, मुग्धता, दुर्बलता, स्तन और पुरुषेच्छा । पुरुष के भी सात लक्षण है : मेहन, कठोरता, दृढ़ता, शूरता, मूछे, तृप्ति और स्त्रीकामिता। नपुंसक के लक्षण स्त्री और पुरुष के लक्षणों से मिले-जुले बीच के होते हैं जो न पूरी तरह स्त्री के अनुरूप होते हैं न पुरुष के । उसमें मोह की मात्रा अत्यधिक होती है।
बारहवें पद के व्याख्यान में आचार्य ने औदारिकादि शरीर के सामान्य स्वरूप का विवेचन किया है।
तेरहवें पद के व्याख्यान में जीव और अजीव के विविध परिणामों का प्रतिपादन किया गया है। जीवपरिणाम इस प्रकार होता है : गति, इन्द्रिय, कषाय, लेश्या, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वेद । अजोवपरिणाम का१. पृ ० ६१-२. २. पृ० ७७.
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