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शांतिसूरिकृत उत्तराध्ययन टीका
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सकलनय संग्राहीणि सप्त नयशतानि विहिततानि यत् प्रतिबद्धं सप्तशतारं नयचक्राध्ययनमासीत्, तत्संग्राहिणः पुनर्द्वादश विध्यादयो, यत्प्रतिपादकमिदानीमपि नयचक्रमास्ते'
द्वितीय अध्ययन की व्याख्या में परीषहों के स्वरूप का विवेचन करते हुए वृत्तिकार कहते हैं कि भगवान् महावीर ने इन परीषहों का उपदेश दिया है । इस प्रसंग पर कणादादिपरिकल्पित ईश्वर विशेष और अपौरुषेय आगम -- इन दोनों का निराकरण किया गया है। देहादि के अभाव में आगमनिर्माण की कल्पना असंगत है : देहादिविरहात् तथाविधप्रयत्नाभावेनाऽख्यानायोगात् । अचेल परीषह की चर्चा करते हुए आचार्य कहते हैं कि चीवर धर्मसाधना में एकान्तरूप से बाधक नहीं है । धर्म का वास्तविक बाधक - कारण तो कषाय है | अतः सकषाय चीवर ही धर्मसाधना में बाधक है । जिस प्रकार धर्मसिद्धि के लिए शरीर धारण किया जाता है और उसका भिक्षा आदि से पोषण किया जाता है उसी प्रकार पात्र और चोवर भी धर्मसिद्धि के लिए हो हैं । जैसा कि वाचक सिद्धसेन कहते हैं :
मोक्षाय धर्मसिद्ध्यर्थं, शरीरं धार्यते यथा । शरीरधारणार्थं च, भैक्षग्रहणमिष्यते ॥ १ ॥ तथैवोपग्रहार्थाय पात्र चीवरमिष्यते । जिनैरुपग्रहः साधोरिष्यते न परिग्रहः ॥ २ ॥
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आगे इसी अध्ययन की वृत्ति में अश्वसेन और वात्स्यायन का भी नामोल्लेख किया गया है । ४
चतुरंगीय नामक तृतीय अध्ययन की वृत्ति में आवश्यकचूणि, वाचक (सिद्धसेन) और शिवशमं का नामोल्लेख है । " शिवशर्म की 'जोगा पर्याडपएसं ठितिअणुभागं गाथा की प्रथम पंक्ति भी उद्धृत की गयी है ।
चतुर्थ अध्ययन की व्याख्या में जीवकरण का स्वरूप बताते हुए वृत्तिकार कहते हैं कि जोवभावकरण दो प्रकार का है : श्रुतकरण और नोश्रुतकरण । श्रुतकरण पुनः दो प्रकार का है : बद्ध और अबद्ध । बद्ध के दो भेद हैं : निशीथ और अनिशोथ । ये पुनः लौकिक और लोकोत्तर भेद से दो प्रकार के हैं । निशीथादि सूत्र लोकोत्तर निशीथश्रुत के अन्तर्गत हैं जबकि बृहदारण्यकादि लौकिक निशीथश्रुत में समाविष्ट हैं । आचारादि लोकोत्तर अनिशीथश्रुत के
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२. पृ० ८० (२).
१. पृ० ६७ ( २ ). ४. पृ० १३१ ( १ ). ५. पृ० १७२ (१), १८५ (२), १९० ( १ ).
३. पृ० ९५ (२).
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