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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
च नेष्यते, यतः प्रज्ञापनायां दश संज्ञाः सर्वप्राणिनामभिहितास्तासां सर्वासां प्रतिषेधः प्राप्नोतीति कृत्वा, ताश्चेमा : " " एवमिहापि न सर्व संज्ञानिषेधः, अपितु विशिष्टसंज्ञानिषेधो, ययाऽऽत्मादिपदार्थं स्वरूपं गत्यागत्यादिकं ज्ञायते तस्या निषेध इति । '
इसी प्रकार नियुक्ति-गाथाओं की व्याख्या में भी प्रत्येक पद का अर्थ अच्छी तरह स्पष्ट किया गया है । प्रथम अध्ययन की व्याख्या के अन्त में विवरणकार ने पुन: इस बात का निर्देश किया है कि आचार्य गन्धहस्ती ने आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन का विवरण लिखा है, जो अति कठिन है । मैं अब अवशिष्ट अध्ययनों का विवरण प्रारम्भ करता हूँ : २
शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पूज्येः । श्रीगन्धहस्तिमिश्र विवृणोमि
षष्ठ अध्ययन की व्याख्या के बाद अष्टम अध्ययन की व्याख्या प्रारम्भ करते हुए आचार्य कहते हैं कि महापरिज्ञा नामक सप्तम अध्ययन का व्यवच्छेद हो जाने के कारण उसका अतिलंघन करके अष्टम अध्ययन का विवेचन प्रारम्भ किया जाता है : अधुना सप्तमाध्ययनस्य महापरिज्ञाख्यस्यावसरः, तच्च व्यवच्छिन्नमितिकृत्वाऽति लंघ्याष्टमस्य सम्बंधो वाच्यः । विमोक्ष नामक अष्टम अध्ययन के षष्ट उद्देशक की वृत्ति में नागरिक शास्त्रसम्मत ग्राम, नगर, खेट, कबंट, मडम्ब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, सन्निवेश, नैगम और राजधानी का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है : ४
'ग्रसति बुद्ध्यादीन् गुणानिति गम्यो वाऽष्टादशानां कराणामिति ग्रामः, 'नात्र करो विद्यत इति नकरं, पांशुप्राकारबद्धं खेटं, क्षुल्लकप्राकारवेष्टितं कर्बेट, अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तर्ग्रामरहितं मडम्बं पत्तनं तु द्विधाजलपत्तनं स्थलपत्तनं च, जलपत्तनं यथा काननद्वीपः, स्थलपत्तनं यथा मथुरा, द्रोणमुखं जलस्थलनिर्गमप्रवेशं यथा भरुकच्छं तामलिप्ती वा आकरो हिरण्याकरादिः, आश्रमः तापसावसथोपलक्षित आश्रयः सन्निवेशः यात्रासमागतजनावासो जनसमागमो वा, नंगमः प्रभूततरवणिग्वगवासः, राजधानी राजाधिष्ठानं राज्ञः, पीठिकास्थानमित्यर्थः ।'
ततोऽहमवशिष्टम् ॥ २॥
१. आगमोदय-संस्करण, पृ० ११. ३. पृ० २५९ (१).
जो बृद्धि आदि गुणों का नाश करता है अथवा अठारह प्रकार के करों का स्थान है वह ग्राम है । जहाँ पर किसी प्रकार का कर नहीं होता वह नकर
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२. पृ० ८१ ( २ ).
४. पृ० २८४ (२) -२८५ (१).
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