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शीलांककृत विवरण
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(नगर) है। मिट्टी की चहारदीवारी से घिरा हुआ क्षेत्र खेट कहलाता है। छोटी चहारदीवारी से वेष्टित क्षेत्र कर्बट कहलाता है। जिसके आसपास ढाई कोस की दूरी तक अन्य ग्राम न हो वह मडम्ब कहलाता है। पत्तन दो प्रकार का है : जलपत्तन और स्थलपत्तन । काननद्वीप आदि जलपत्तन हैं। मथुरा आदि स्थलपत्तन हैं। जल और स्थल के आवागमन के केन्द्रों को द्रोणमुख (बंदर) कहते हैं । भरुकच्छ, तामलिप्ति आदि इसी प्रकार के स्थान है। सुवर्ण आदि के कोष को आकर कहते हैं । तपस्वियों का वास-स्थान आश्रम कहलाता है । यात्रियों के समुदाय अथवा सामान्य जनसमूह को सन्निवेश कहते हैं। व्यापारी वर्ग की वमति नेगम कहलाती है। राजा के मुख्य स्थान-पीठिका-स्थान को राजधानी कहते हैं।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के व्याख्यान के प्रारंभ में विवरणकार ने पुनः मध्य मंगल करते हुए तीन श्लोक लिखे हैं तथा चतुचूंडात्मक द्वितीय श्रुतस्कन्ध की व्याख्या करने को प्रतिज्ञा की है। इस श्रु तस्कन्ध का नाम अग्रश्रुतस्कन्ध क्यों रखा गया, इसका भी नियुक्ति को सहायता से विचार किया गया है। प्रथम और द्वितीय दोनों श्रुतस्कन्धों के विवरण के अन्त में समाप्तिसूचक श्लोक है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अन्त में केवल एक श्लोक है जिसमें आचार्य ने आचारांग को टोका लिखने से प्राप्त स्वपुण्य को लोक को आचारशुद्धि के लिए प्रदान कियाहै :२
आचार्टीकाकरणे यदाप्तं, पुण्यं माया मोक्षगमैकहेतुः।
तेनापनोयाशुभराशिमुच्चैराचारमार्गप्रवणोऽस्तु लोकः ॥ प्रथम श्रुतस्कन्ध के अन्त में चार श्लोक हैं जिनमें यह बताया गया है कि शोलाचार्य ने गुप्त संवत् ७७२ को भाद्रपद शुक्ला पंचमी के दिन गंभूता में प्रस्तुत टीका पूर्ण को । आचार्य ने टीका में रही त्रुटियों का संशोधन कर लेने की भी नम्रतापूर्वक सूचना दी है और इस टीका की रचना से प्राप्त पुण्य से जगत् की सदाचार-वृद्धि की कामना की है :3
द्वासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च भाद्रपदे शक्लपञ्चम्याम् ॥ १॥ शोलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टोकषा। सम्यगुपयुज्य शोध्यं मात्सर्यविनाकृतैरायः ।।२।। कृत्वाऽऽचारस्य मया टोकां यत्किमपि सञ्चितं पुण्यम् ।
तेनाप्नुयाज्जगदिदं निर्वृतिमतुलां सदाचारम् ॥ ३ ॥ १. पृ. ३१८. २. पृ. ४३१ (२). ३. पृ. ३१७.
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