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सप्तम प्रकरण
शान्तिसूरिकृत उत्तराध्ययनटीका
वादिवेताल शान्तिसूरि ने उत्तराध्ययन सूत्र पर टीका लिखी है। इनका जन्म राधनपुर के पास उण-उन्नतायु नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम धनदेव और माता का नाम धनश्री था। शान्तिसूरि का बाल्यावस्था का नाम भीम था। प्रभावक-चरित्र में इनका चरित्र-वर्णन इस प्रकार है : । उस समय पाटन में 'संपक विहार' नामक एक प्रसिद्ध जिनमंदिर था । उसी के पास थारापद गच्छ का उपाश्रय था। उस उपाश्रय में थारापद-गच्छीय विजयसिंहसूरि नामक आचार्य रहते थे। वे विचरते हुए उन्नायु पहुँचे और धनदेव को समझा-बुझा कर प्रतिभाशाली बालक भीम को दीक्षा दी। दीक्षा के बाद भीम का नाम शान्ति हो गया। कालक्रम से शान्ति आचार्यपद प्राप्त कर विजयसिंहसूरि के पट्टधर शिष्य शांतिसूरि हुए।
पाटन के भीमराज की सभा में शान्तिसूरि 'कवीन्द्र' तथा 'वादिचक्रवर्ती' के रूप में प्रसिद्ध थे । कवि धनपाल के प्रार्थना करने पर शान्तिसुरि ने मालवप्रदेश में बिहार किया तथा भोजराज की सभा के ८४ वादियों को पराजित कर ८४ लाख रुपये प्राप्त किये। मालवे के एक लाख रुपये गुजरात के १५ हजार रुपये के बराबर होते थे । इस हिसाब से भोज ने १२ लाख ६० हजार गुजराती रुपये शान्तिसूरि को भेंट किये। इनमें से १२ लाख रुपये तो उन्होंने वहीं जैन मंदिर बनवाने में खर्च कर दिये। शेष ६० हजार रुपये थरादनगर में भिजवाये जो वहीं के आदिनाथ के मंदिर में रथ आदि बनवाने में खर्च किये गये।
अपनी सभा के पंडितों के लिए शान्तिसरि वेताल के समान थे अतः राजा भोज ने उन्हें 'वादिताल' पद से विभूषित किया। धारानगरी में कुछ समय तक ठहर कर शान्तिसूरि ने महाकवि धनपाल की 'तिलकमंजरी' का संशोधन किया और बाद में धनपाल के साथ वे भो पाटन आये। उस समय वहाँ के सेठ जिनदेव के पुत्र पद्मदेव को साँप ने काट लिया था। उसे मृत समझ कर भूमि में गाड़ दिया गया था। शान्तिसूरि ने उसे निर्विष कर जीवन-प्रदान किया।
१. श्रीशान्तिसूरि-प्रबन्ध (मुनि कल्याणविजयजी का भाषांतर).
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