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पंचम प्रकरण गन्धहस्तिकृत शस्त्रपरिज्ञा-विवरण आचार्य गन्धहस्ती ने आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन शत्रपरिज्ञा पर टीका लिखी थी जो इस समय अनुपलब्ध है। शीलांकाचार्य ने अपनी आचारांग-टीका के आरम्भ में इसका उल्लेख किया है। प्रस्तुत गंधहस्ती और तत्वार्थभाष्य पर बृहद्वृत्ति लिखने वाले सिद्धसेन दोनों एक ही व्यक्ति हैं।' ये सिद्धसेन भास्वामी के शिष्य हैं। अभी तक इनकी उपयुक्त दो कृतियों के विषय में ही प्रमाण उपलब्ध है। सिद्धसेन का नाम गन्धहस्ती किसने व क्यों रखा ? इन्होंने स्वयं अपनी प्रशस्ति में गन्धहस्ती पद नहीं जोड़ा। ऐसा प्रतीत होता है कि इनके शिष्य अथवा भक्त अनुगामियों ने इन्हें गन्धहस्ती के रूप में प्रसिद्ध किया है । ऐसा करने का कारण यह जान पड़ता है कि प्रस्तुत सिद्धसेन एक सैद्धान्तिक विद्वान् थे । उनका आगमों का ज्ञान अति समृद्ध था। वे आगमविरुद्ध मान्यताओं का खण्डन करने में बहुत प्रसिद्ध थे । सिद्धान्तपक्ष का स्थापन करना उनकी एक बहुत बड़ी विशेषता थी। उनकी अठारह हजार श्लोकप्रमाण तत्वार्थभाष्य की वृत्ति सम्भवतः उस समय तक लिखी गई तत्वार्थभाष्य को सभी व्याख्याओं में बड़ी रही होगी । इस बृहवृत्ति तथा उसमें किये गये आगमिक मान्यताओं के समर्थन को देखकर उनके बाद के शिष्यों अथवा भक्तों ने उनका नाम गन्धहस्ती रख दिया होगा । यह 'गन्धहस्ती' शब्द इतना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि तीर्थंकरों के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है । 'शक्रस्तव' नाम से प्रसिद्ध 'नमोत्थुणं' के प्राचीन स्तोत्र में पुरिसवरगन्धहत्थीणं' का प्रयोग कर तीर्थकर को गन्धहस्ती विशेषण से विशिष्ट बताया गया है। सिद्धसेन अर्थात् गन्धहस्ती के समय के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। हाँ, इतना निश्चित है कि ये विक्रम की सातवीं और नवीं शताब्दी के बीच में कभी हुए हैं। इन्होंने अपनी तत्वार्थभाष्य-वृत्ति में वसुबन्धु, धर्मकोति आदि बौद्ध विद्वानों का उल्लेख किया है जिससे यह सिद्ध होता है कि ये सातवीं शताब्दी (विक्रम) के पहले तो नहीं हुए। दूसरी ओर नवीं शताब्दी में होने वाले आचार्य शीलांक ने इनका उल्लेख किया है जिससे यह सिद्ध होता है कि ये नवीं शताब्दी से पूर्व किसी समय हुए हैं।
१. इस मत की पुष्टि के लिए देखिये-तत्वार्थसूत्र : परिचय, पृ० ३४-४२
(पं० सुखलालजीकृत विवेचन ). २. तत्वार्थभाष्यवृत्ति पृ० ६८, ३९७.
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