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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
है । इसमें वीतराग के प्रवचनों का कोई दोष नहीं है । दोष सुनने वाले उन पुरुष - उलूकों का है जिनका स्वभाव ही वीतराग प्रवचनरूपी प्रकाश में अन्धे हो जाना है । जैसाकि आचार्य कहते हैं "त्र लोक्यगु रोधर्म देश नक्रिया विभिन्न स्वभावेषु प्राणिषु तत्स्वाभाव्यात् विबोधाविबोधकारिणी पुरुषोलूककमल कुमुदादिषु आदित्यप्रकाशनक्रियावत् उक्तं च वादि मुख्येन - त्वद्वाक्यतोऽपि केषाञ्चिदबोध इति मेऽद्भुतम् । भानोर्मरीचयः कस्य, नाम नालोक हेतवः ॥ १ ॥ चाद्भुतमुलुकस्य, प्रकृत्या क्लिष्टचेतसः ।
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स्वच्छा अपि तमस्त्वेन, भासन्ते भास्वतः कराः ॥ २ ॥
सामायिक के उद्देश, निर्देश, निर्गम क्षेत्र आदि २३ द्वारों का विवेचन करते हुए वृत्तिकार ने एक जगह (आवश्यक के) विशेषविवरण का उल्लेख किया है | निर्देश-द्वार के स्वरूप का संक्षिप्त वर्णन करने के बाद वे लिखते हैं : व्यासा - र्थस्तु विशेषविवरणादवगन्तव्य इति । २
सामायिक के निर्गम-द्वार के प्रसंग से कुलकरों की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए आचार्य ने सात कुलकरों की उत्पत्ति से सम्बन्धित एक प्राकृत कथानक दिया है और उनके पूर्वभवों के विषय में सूचित किया है कि एतद्विषयक वर्णन प्रथमानुयोग में देख लेना चाहिए : पूर्भभवाः खल्वमीषां प्रथमानुयोगतोऽवसेयाः"। उनकी आयु आदि का वर्णन करते हुए वृत्तिकार ने 'अन्ये तु व्याचक्षते ऐसा लिख कर तद्विषयक मतभेदों का भी उल्लेख किया है । आगे नाभि कुलकर के यहाँ भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ, यह बताया गया है. तथा उनके तीर्थंकरनाम - गोत्रकर्म बँधने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए धन नामक सार्थवाह का आख्यान दिया गया है । यह आख्यान भी अन्य आख्यानों की भाँति प्राकृत में ही है । इस प्रसंग से सम्बन्धित गाथाओं में से एक गाथा का अन्यकर्तृकी गाथा के रूप में उल्लेख किया गया है । 'उत्तरकुरु सोहम्म महाविदेहे महब्बलो..' गाथा का व्याख्यान करते हुए वृत्तिकार कहते हैं : इयमन्यकर्तृकी गाथा सोपयोगा च । भगवान् ऋषभदेव के अभिषेक का वर्णन करते हुए आचार्य ने नियुक्ति के कुछ पाठान्तर भी दिये हैं : पाठान्तरं वा 'आभोएडं सक्को आगंतु तस्स कासि६ 'चउव्विहं संगहं कासी इत्यादि । प्रस्तुत वृत्ति में इस प्रकार के अनेक पाठान्तर दिये गये हैं | आदितीर्थंकर
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३. पृ० ११० (२), १११ (१)
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१. पृ० ६७ (२ ). ४. पृ० ११२ (१). ६. पृ० १२७ (२).
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२. पृ० १०७ (१). ५. पृ० ११४ (२).
७. पृ० १२८ (१).
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