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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
विज्ञप्तिः फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥
इसी प्रकार क्रिया के समर्थन में उन्होंने लिखा है : क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥
टीका के अन्त में कहा गया है : समाप्तेयं शिष्यहितानामानुयोगद्वार - टीका, कृतिः सिताम्बराऽऽचार्य जिन भट्टपादसेवकस्याऽऽचार्यरिभद्रस्य । कृत्वा विवरणमेतत्प्राप्तं
दशवेकालिकवृत्ति :
इस वृत्ति का नाम शिष्यबोधिनी वृत्ति है । इसे बृहद्वृत्ति भी कहते हैं । यह टीका शय्यम्भवसूरिविहित दशवेकालिकसूत्र की भद्रबाहुविरचित नियुक्ति पर है। प्रारंभ में आचार्य हरिभद्र ने वीर प्रभु को नमस्कार किया है :
जयति विजितान्यतेजाः सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् । विमलस्त्रासविरहितस्त्रिलोकचिन्तामणिर्वीरः ॥ १ ॥
दशकालिक का दूसरा नाम दशकालिक भी है । 'दशकालिक' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए वृत्तिकार कहते हैं : 'कालेन निर्वृत्तं कालिकं प्रमाणकालेनेति भावः, दशाध्ययनभेदात्मकत्वाद्दशप्रकारं कालिकं प्रकारशब्दलोपाद्दशकालिकं...'' अर्थात् जो काल से अर्थात् प्रमाणकाल से निवृत्त है वह कालिक है । चूंकि इस सूत्र में दस अध्याय हैं इसलिए इसका नाम दशकालिक है ।
मंगल की आवश्यकता बताते हुए आचार्य ने 'मंगल' पद की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है : 'मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलं, मङ्गयतेऽधिगम्यते साध्यत इति यावत् अथवा मङ्ग इति धर्माभिधानं, 'ला आदाने' अस्य धातोर्मङ्गे उपपदे “आतोऽनुपसर्गे कः " ( पा० ३-२-३ ) इति कप्रत्ययान्तस्यानुबन्धलोपे कृते "आता लोप इटि च " ( पा० ६-४-६४ ) इत्यनेन सूत्रेणाकारलोपे च कृते प्रथमैकवचनान्तस्यैव मङ्गलमिति भवति, मङ्गलातीति मङ्गलं धर्मोपादनहेतुरित्यर्थः, अथवा मां गालयति भवादिति मङ्गलं, संसा
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१. पृ. १२७.
२. पृ. १२८.
३. (अ) देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९१८.
(आ) समयसुन्दरकृत टीकासहित - भीमसी माणेक, बम्बई, सन् १९००.
४. पू. २ ( अ ).
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