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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास का तथा अभेद के समर्थक वृद्धाचार्यों का उल्लेख किया है। वह इस प्रकार है : केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भणंति, किं? युगपद-एकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति च, कः ? केवली, न त्वन्यः, नियमात्-नियमेन । अन्ये जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः एकान्तरितं जानाति पश्यति चेत्येवमिच्छन्ति, श्रुतोपदेशेन-यथाश्रुतागमानुसारेणेत्यर्थः, अन्ये तु वृद्धाचार्याः न-नैव विष्वक पृथक् तददर्शनमिच्छन्ति जिनवरेन्द्रस्य-केवलिन इत्यर्थः, किं तर्हि ? यदेव केवलज्ञानं तदेव 'से' तस्य केवलिनो दर्शनं ब्रुवते, क्षीणावरणस्य देशज्ञानाभाववत् केवलदर्शनाभावादिति भावना।' प्रस्तुत सिद्धसेन, सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न है क्योंकि सिद्धसेन दिवाकर तृतीय मत-अभेदवाद के प्रवर्तक हैं। वृत्तिकार ने संभवतः वृद्धाचार्य के रूप में इन्हीं का निर्देश किया है। द्वितीय मत--क्रमिकत्व के समर्थक जिनभद्र आदि को सिद्धान्तवादी कहा गया है । श्रुत के श्रवण और व्याख्यान की विधि बताते हुए आचार्य ने नन्द्यध्ययन-विवरण समाप्त किया है । अन्त में लिखा है :
यदिहोत्सूत्रमज्ञानाद्, व्याख्यातं तद् बहुश्रुतैः । क्षन्तव्यं कस्य सम्मोहश्छद्मस्थस्य न जायते ॥१॥ नन्द्यध्ययनविवरणं कृत्वा यदवाप्तमिह मया पुण्यम् ।
तेन खलु जीवलोको लभतां जिनशासने नन्दीम् ॥ २॥ कृतिः सिताम्बराचार्यजिनभट्टपादसेवकस्याचार्यश्रीहरिभद्रस्येति । नमः श्रुतदेवतायै भगवत्यै । समाप्ता नन्दीटीका । ग्रन्थाग्नं २३३६. अनुयोगद्वारटीका : ___यह टीका अनुयोगद्वारचूणि की शैली पर लिखी गयी है। प्रारम्भ में आचार्य ने महावीर को नमस्कार करके अनुयोगद्वार की विवृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है :
प्रणिपत्य जिनवरेन्द्र त्रिदशेन्द्रनरेन्द्रपूजितं वीरम् ।
अनुयोगद्वाराणां प्रकटार्था विवृतिमभिधास्ये ॥ १॥ टीकाकार ने यह बताया है कि नन्दी की व्याख्या के अनन्तर ही अनुयोगद्वार के व्याख्यान का अवकाश है : नन्द्यध्ययनव्याख्यानसमनन्तरमेवानुयोगद्वाराध्ययनावकाश.."।" मंगल का प्रतिपादन करते हुए आचार्य ने लिखा है कि इसका विशेष विवेचन नन्दी की टीका में किया जा चुका है। अतः यहाँ इतना ही पर्याप्त है : अस्य सूत्रस्य समुदायार्थोऽवयवार्थश्च नन्द्यध्ययन-- १. पृ० ५२. २. पृ० ५५. ३. पृ० ११८. ४. ऋषभदेवजी के शरीमलजो श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९२८. ५. पृ० १.
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