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हरिभद्रकृत वृत्तियाँ
३३५ आचार्य हरिभद्र ने अपने प्रत्येक ग्रंथ के अन्त में प्रायः 'विरह' शब्द का प्रयोग किया है। प्रभावकचरित्र में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है:
अतिशयहृदयाभिरामशिष्यद्वयविरहोमिभरेण तप्तदेहः।। निजकृतिमिह संव्यधात् समस्तां विरहपदेन युतां सतां स मुख्यः ।।
__ श्रीहरिभद्रप्रबन्ध, का० २०६. अपने अति प्रिय दो शिष्यों के विरह से दुःखित हृदय होकर आचार्य ने अपने प्रत्येक ग्रंथ को 'विरह' शब्द से अंकित किया है।
आचार्य हरिभद्रकृत प्रकाशित टीकाओं का परिचय आगे दिया जाता है । नन्दीवृत्ति : ____ यह वृत्ति' नन्दीचूर्णि का ही रूपांतर है। इसमें प्रायः उन्हीं विषयों का व्याख्यान किया गया है जो नन्दीचूणि में है। व्याख्यान-शैली भी वही है जो चूर्णिकार की है। प्रारम्भ में मंगलाचरण करने के बाद नन्दी के शब्दार्थ, निक्षेप आदि का विचार किया गया है। तदनन्तर जिन, वीर और संघ की स्तुति की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है तथा तीर्थकरावलिका, गणधरावलिका और स्थविरावलिका का प्रतिपादन किया गया है । नन्दी-ज्ञान के अध्ययन की योग्यताअयोग्यता का विचार करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है कि अयोग्यदान से वस्तुतः अकल्याण ही होता है और निर्देश किया है कि इसकी विस्तृत व्याख्या मैं आवश्यकानुयोग में करूँगा । यहाँ स्थानपूर्ति के लिए भाष्य की गाथाओं से ही व्याख्यान किया जाता है : अतोऽयोग्यदाने दातृकृतमेव वस्तुतस्तस्य तदकल्याणमिति, अलं प्रसंगेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्राधिकृतगाथां प्रपञ्चतः आवश्यकानुयोगे व्याख्यास्यामः, इह स्थानाशून्यार्थं भाष्यगाथाभियाख्यायत इति । इसके बाद तीन प्रकार की पर्षद् का व्याख्यान किया गया है। तदनन्तर आचार्य ने ज्ञान के भेद-प्रभेद, स्वरूप, विषय आदि का विस्तृत विवेचन किया है। केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रमिकादि उपयोग का प्रतिपादन करते हुए योगपद्य के समर्थक सिद्धसेन आदि का, क्रमिकत्व के समर्थक जिनभद्रगणि आदि १. ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबर संस्था, रतलाम, सन् १९२८ प्राकृत
टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी, सन् १९६६. २. चूणि और वृत्ति के मूल सूत्र-पाठ में कहीं-कहीं थोड़ा-सा अन्तर है : पढमेत्य
इंदभूती, बीए पुण होति अग्गिभूतित्ति ( चूणि ), पढमेत्थ इंदभूई बीओ पुण
होइ अग्गिभूइत्ति ( वृत्ति ) । देखिए-क्रमशः पृ० ६ और १३. ३. पृ० २१.
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