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हरिभद्रकृत वृत्तियाँ प्रतिज्ञा का स्मरण हो आया। वे कहने लगे-"माता जी! आप मुझे अपना शिष्य बनाइए और उस गाथा का अर्थ समझाने की कृपा कीजिए।" यह सुनकर जैन आर्या महत्तरा ने नम्रतापूर्वक कहा कि पुरुषों को शिष्य बनाना तथा अर्थ समझाना हमारा कार्य नहीं है । यदि तुम्हारी शिष्य बनने तथा गाथा का अर्थ समझने की इच्छा ही है तो सुनो। इसी नगर में हमारे धर्माचार्य जिनभट हैं । वे तुम्हारी इच्छा पूरी करेंगे । हरिभद्र तो अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार इसी आर्या के शिष्य बनना चाहते थे किन्तु महत्तरा के अत्यन्त आग्रह के कारण वे इस आज्ञा को गुरु की आज्ञा के समान ही समझकर उसी समय आचार्य जिनभट के पास पहुँचे । साथ में आर्या महत्तरा भी थीं। मार्ग में वही जिनमंदिर आया जिसने हरिभद्र को मृत्यु के मुख से बचाया था। इस समय हरिभद्र की मनःस्थिति बदल चुकी थी। जिन प्रतिमा को देख कर वे कहने लगे-"वपूरेव तवाऽऽचष्टे भगवन् ! वीतरागताम् ।" पहले जहाँ 'स्पष्टं मिष्टान्नभोजनम्' याद आया था वहाँ अब भगवन् ! वीरागताम्' याद आ रहा था। आर्या महत्तरा और हरिभद्र आचार्य जिनभट के पास पहुचे । आचार्य ने हरिभद्र को दीक्षित कर अपना शिष्य बना लिया। अब वे धर्मपुरोहित होकर स्थान-स्थान पर भ्रमण करते हुए जैनधर्म का प्रचार करने लगे।
प्रभावकचरित में वर्णित उपयुक्त उल्लेख के अनुसार हरिभद्र के दीक्षागुरु आचार्य जिन भट सिद्ध होते हैं किन्तु हरिभद्र के खुद के उल्ल्लेखों से ऐसा फलित होता है कि जिनभट उनके गच्छपति गुरु थे; जिनदत्त दीक्षाकारी गुरु थे; याकिनी महत्तरा धर्मजननी अर्थात् धर्ममाता थीं; उनका कुल विद्याधर एवं सम्प्रदाय सिताम्बर-श्वेताम्बर था।
आचार्य हरिभद्रकृत ग्रंथ-सूची में निम्न ग्रंथ समाविष्ट हैं :
१. अनुयोगद्वारसूत्रवृत्ति, २. अनेकान्तजयपताका (स्वोपज्ञ टीका सहित), ३. अनेकान्तप्रघट्ट, ४. अनेकान्तकादप्रवेश, ५. अष्टक, ६. आवश्यकनियुक्ति लघुटीका, ७. आवश्यकनियुक्तिबृहट्टीका, ८. उपदेशपद, ९. कथाकोष, १०. कर्मस्तववृत्ति, ११. कुलक, १२. क्षेत्रसमासवृत्ति, १३. चतुर्विशतिस्तुतिसटीक, १४. चैत्यवदनभाष्य, १५ चैत्यवंदनवृत्ति-ललितविस्तरा, १६. जीवाभिगम
१. आवश्यक-नियुक्ति-टीका के अन्त में देखिए :
'समाप्ता चेयं शिष्यहिता नाम आवश्यकटीका । कृतिः सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोः अल्पमतेः आचार्यहरिभद्रस्य ।'
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