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तृतीय प्रकरण हरिभद्रकृत वृत्तियाँ
हरिभद्रसूरि जैन आगमों के प्राचीन टीकाकार हैं। इन्होंने आवश्यक, दशवकालिक, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार और पिण्डनियुक्ति पर टीकाएँ लिखो हैं । पिण्डनियुक्ति की अपूर्ण टीका वीराचार्य ने पूरी की है।
जैन परम्परा के अनुसार विक्रम संवत् ५८५ अथवा वीर संवत् १०५५ अथवा ई० सं० ५२९ में हरिभद्रसूरि का देहावसान हो गया था। इस मान्यता को मिथ्या सिद्ध करते हुए हर्मन जेकोबी लिखते हैं कि ई० सं० ६५० में होने वाले धर्मकीति के तात्त्विक विचारों से हरिभद्र परिचित थे अतः यह संभव नहीं कि हरिभद्र ई० सं० ५२९ के बाद न रहे हों। हरिभद्र के समय-निर्णय का एक प्रबल प्रमाण उद्योतन सूरि का कुवलयमाला नामक प्राकृत ग्रन्थ है । यह ग्रंथ शक संवत् ७०० की अन्तिम तिथि अर्थात् ई० सं० ७७९ के मार्च की २१वीं तारीख को पूर्ण हुआ था। इस ग्रन्थ को प्रशस्ति में उद्योतन ने हरिभद्र का अपने दर्शनशास्त्र के गुरु के रूप में उल्लेख किया है तथा उनका अनेक ग्रन्थों के रचयिता के रूप में वर्णन किया है। इस प्रमाण के आधार पर मुनि श्री जिनविजयजी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महान् तत्त्वज्ञ आचार्य हरिभद्र और 'कुवलयमाला' कथा के कर्ता उद्योतनसूरि अपरनाम दाक्षिण्यचिह्न दोनों ( कुल समय तक तो अवश्य ही ) समकालीन थे। इतनी विशाल ग्रन्थराशि लिखने वाले महापुरुष की आयु कम-से-कम ६०-७० वर्ष की तो अवश्य हुई होगी। अतः लगभग ईसा की आठवीं शताब्दी प्रथम दशक में हरिभद्र का जन्म और अष्टम दशक में मृत्यु मान ली जाए तो कोई असंगति प्रतीत नहीं होती। अतः हम ई० सं० ७०० से ७७० अर्थात् वि० सं० ७५७ से ८२७ तक हरिभद्रसूरि का सत्ता-समय निश्चित करते हैं।
हरिभद्र का जन्म वीरभूमि मेवाड़ के चित्रकूट ( चित्तौड़ ) नगर में हुआ था। आज से लगभग साढ़े बारह सौ वर्ष पूर्व इस नगर में जितारि नामक राजा
१. जैन साहित्य संशोधक, खं० ३, अं० ३, पृ० २८३. २. वही, खं० १, अं० १, पृ० ५८ और आगे.
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