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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास लघुवृत्ति, १७. ज्ञानपञ्चकविवरण, १८. ज्ञानादित्यप्रकरण, १९. दशवकालिक अवरि, दशवैकालिकबहट्रीका, २१. देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण, २२. द्विजवदनचपेटा (वेदांकुश), २३. धर्मबिन्दु, २४. धर्मलाभसिद्धि, २५. धर्ससंग्रहणी, २६. धर्मसारमूलटीका, २७. धूर्ताख्यान, २८. नंदीवृत्ति, २९. न्यायप्रवेशसूत्रवृत्ति, ३०. न्यायविनिश्चय, ३१. न्यायमृततरंगिणी, ३२. न्यायावतारवृत्ति, ३३. पंचनिर्ग्रन्थि, ३४. पंचलिंगी, ३५. पंचवस्तु सटीक, ३६. पंचसंग्रह, ३७. पंचसूत्रवृत्ति, ३८, पंचस्थानक, ३९. पंचाशक, ४०. परलोकसिद्धि, ४१. पिण्डनियुक्तिवृत्ति (अपूर्ण), ४२. प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या, ४३. प्रतिष्ठाकल्प, ४४. बृहन्मिथ्यात्वमंथन, ४५. मुनिपतिचरित्र, ४६. यतिदिनकृत्य, ४७. यशोधरचरित्र, ४८. योगदृष्टिसमुच्चय, ४९. योगबिन्दु, ५०. योगशतक, ५१. लग्नशद्धि (लग्नकुण्डलि), ५२. लोकतत्त्वनिर्णय, ५३. लोकबिन्द, ५४. विंशति (विंशतिविशिका), ५५. वीरस्तव, ५६. वीरांगदकथा, ५७. वेदबाह्यतानिराकरण, ५८. व्यवहारकल्प, ५९. शास्त्रवार्तासमुच्चय सटीक, ६०. श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति, ६१. श्रावकधर्मतन्त्र, ६२. षड्दर्शनसमुच्चय, ६३. षोडशक, ६४. संकितपचासी, ६५. संग्रहणीवृत्ति, ६६. संपंचासित्तरी, ६७. संबोधसित्तरी, ६८. संबोधप्रकरण, ६९. संसारदावास्तुति, ७०. आत्मानुशासन, ७१. समराइच्चकहा, ७२. सर्वज्ञसिद्धिप्रकरण सटीक, ७३. स्याद्वादकुचोद्यपरिहार ।'
कहा जाता है कि आचार्य हरिभद्र ने १४४४ ग्रंथों की रचना की थी। इसका कारण बताते हुए कहा गया है कि १४४४ बौद्धों का संहार करने के संकल्प के प्रायश्चित्त के रूप में उनके गुरु ने उन्हें १४४४ ग्रंथ लिखने की आज्ञा दी थी। समराइच्चकहा के अन्त में कहा गया है :
एवं जिणदत्तायरियस्स उ अवयवभूएण चरियमिणं । जं विरइऊण पुन्नं महाणुभावचरियं मए पत्तं ।
तेणं गुणाणुराओ होइ इहं सव्वलोयस्स ।। इस घटना का उल्लेख राजशेखरसूरि ने अपने चतुर्विशतिप्रबन्ध और मुनि क्षमाकल्याग ने अपनी खरतरगच्छपट्टावली में भी किया है । इन ग्रंथों में से कुछ ग्रंथ पचास श्लोकप्रमाण भी हैं। इस प्रकार के 'पंचाशक' नाम के १९ ग्रंथ आचार्य हरिभद्र ने लिखे हैं जो आज पंचाशक नामक एक ही ग्रंथ में समाविष्ट है। इसी प्रकार सोलह श्लोकों के षोडशक, बीस श्लोकों की विशिकाएँ भी हैं। इनकी एक स्तुति 'संसारदावा' तो केवल चार श्लोकप्रमाण ही है। इस प्रकार आचार्य हरिभद्र को ग्रंथ-संख्या में और भी वृद्धि की जा सकती है ।
१. जैनदर्शन (अनुवादक-५० बेचरवास) : प्रस्तावना, पृ० ४५-५१.
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