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द्वितीय प्रकरण जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य-स्वोपावृत्ति
विशेषावश्यकभाष्यकार आचार्य जिनभद्र द्वारा प्रारम्भ की गई प्राचीनतम प्रस्तुत टीका' कोट्यायं वादिगणि ने पूर्ण की है । आचार्य जिनभद्र ने अपने प्रियतम प्राकृत ग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य का स्वकृत संस्कृतरूप जीवित रखने तथा उसे पाठकों के समक्ष गद्य में प्रस्तुत करने की पवित्र भावना से ही प्रस्तुत प्रयास प्रारम्भ किया था। दुर्भाग्य से वे अपनी यह इच्छा अपने जीवनकाल में पूर्ण न कर सके। परिणामतः वे षष्ठ गणधरवक्तव्य तक की टीका लिखकर ही दिवंगत हो गये । टीका का अवशिष्ट भाग कोट्यार्य ने पूर्ण किया।
जिनभद्र ने प्रस्तुत टीका के लिए अलग मंगल-गाथा आदि न लिखते हुए सीधा भाष्य गाथा का व्याख्यान प्रारम्भ किया है। व्याख्या की शैली बहुत ही सरल, स्पष्ट एवं प्रसादगुणसम्पन्न है। विषय का विशेष विस्तार न करते हुए संक्षेप में ही विषयप्रतिपादन का सफल प्रयास किया है ।
व्याख्यानशैली के कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं जिनसे उपयुक्त कथन की यथार्थता की पुष्टि हो सकेगी। भाष्य की प्रथम गाथा है :
कयपवयणप्पणामो, वुच्छं चरणगुणसंगहं सयलं ।
आवस्सयाणुओगं, गुरूवएसाणुसारेणं ॥ इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य लिखते हैं :
'प्रोच्यन्ते ह्यनेन जीवादयोऽस्मिन्निति वा प्रवचनम्, अथवा. प्रगतं प्रधानं (प्र) शस्तमादी वा वचनं द्वादशाङ्गम्, अथवा प्रवक्तीति प्रवचनम्, तदुपयोगानन्यत्वाद्वा सङ्घः प्रवचनम् । प्रणमनं प्रणामः, पूजेत्यर्थः । कृतः प्रवचनप्रणामोऽनेन कृतप्रवचनप्रणामः । 'वुच्छं वक्ष्ये । चर्यते तदिति चरणं-चारित्र, गुणाः-मूलोत्तरगुणाः चरणगुणाः, अथवा चरणं-चारित्रं गुणग्रहणात् सम्यग्दर्शनज्ञाने, तेषां संग्रहणं संग्रहः । सह
१. इसकी हस्तलिखित प्रति मुनि श्री पुण्य विजयजी के प्रसाद से प्राप्त हुई है ।
इसका प्रथम भाग पं० दलसुख मालवणिया द्वारा सम्पादित होकर लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से सन् १९६६ में प्रकाशित हुआ है।
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