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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अधवा जत्थ इत्थिपुरिसा वसंति सा सागारिका । पण्यशाला आदि में ठहरने का निषेध करते हुए चूर्णिकार ने निम्न स्थानों का वर्णन किया है :
१. पण्यशाला - जहाँ व्यापारी अथवा कुम्भकार बर्तन बेचता है | २. भंडशाला - जहाँ बर्तनों का संग्रह रखा जाता है ।
३. कर्मशाला — जहाँ कुम्भकार बर्तन बनाता है ।
४. पचनशाला — जहाँ बर्तन पकाये जाते हैं ।
५. इन्धनशाला - जहाँ घासफूस एकत्र किया जाता है ।
६. व्यधारणशाला -- जहाँ सारे गाँव के लिए दिन-रात अग्नि जलती रहती है । एतद्विषयक चूर्णिपाठ इस प्रकार है : पणियशाला जत्थ भायणाणि विक्केति वाणियकुम्भकारो वा एसा पणियसाला | भंडसाला जहि भायणाणि संगोवियाणि अच्छंति । कम्मसाला जत्थ कम्मं करेति कुम्भकारो । पयणसाला जहिं पच्चंति भायणाणि । इंधणसाला जत्थ तण - करिसभारा अच्छंति । वग्घारणसाला तोसलिविसए गाममज्झे साला कीरइ, तत्थ अगणिकुडं णिच्चमेव अच्छति सयंवरणिमित्तं ।
जुगुप्सित -- घृणित कुलों से आहार आदि ग्रहण करने का निषेध करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जुगुप्सित दो प्रकार के होते हैं : इत्वरिक और यावत्कथिक । इत्वरिक थोड़े समय के लिए होते हैं जबकि यावत्कथिक जीवनभर के लिए होते हैं । सूतक आदि वाले कुल इत्वरिक जुगुप्सित कुल हैं । लोहकार, कलाल, चर्मकार आदि यावत्कथिक जुगुप्सित कुल हैं । इन कुलों से साधु को आहार आदि नहीं लेना चाहिए ।
श्रमणों को आर्यदेश में ही विचरना चाहिए, अनार्यदेश में नहीं । प्रस्तुत चूर्ण में आदेश की सीमा इस प्रकार बताई गई है : पुव्वेण मगहविसओ, दक्खिणेण कोसंबी, अवरेण थूणाविसओ, उत्तरेण कुणालाविसओ । एतेसि मज्झं आरियं परतो अणारियं । पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में स्थूणापर्यन्त और दक्षिण में कौशांबी से लेकर उत्तर में कुणालापर्यन्त आर्यदेश है । शेष अनायंदेश है । यही मान्यता भाष्यकार आदि की भी है । सप्तदश उद्देश :
इस उद्देश के प्रारम्भ में कुतूहल - कौतुक के कारण होनेवाली दोष-पूर्ण क्रियाओं का निषेध किया गया है । आगे दस प्रकार के स्थितकल्प और दो
१. चतुर्थं भाग, पृ० १, २. पृ० ६९ ३. पृ० १३२.
४. पृ० १२६.
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