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द्वादश प्रकरण
दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि यह चूणि' मुख्यतया प्राकृत में है। कहीं-कहीं संस्कृत शब्दों अथवा वाक्यों के प्रयोग भी देखने को मिलते हैं। चूणि का आधार मूल सूत्र एवं नियुक्ति है। प्रारम्भ में चूर्णिकार ने परम्परागत मंगल की उपयोगिता का विचार किया है। तदनन्तर प्रथम नियुक्ति-गाथा का व्याख्यान किया है :
वंदामि भद्दबाहु, पाईणं चरमसयलसुअनाणि ।
सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे अ ववहारे ॥१॥ भद्दबाहु नामेणं, पाईणो गोत्तेणं, चरिमो अपच्छिमो, सगला इंचोद्दसपुवाई। किं निमित्तं नमोक्कारो तस्स कज्जति ? उच्यते-जेण सुत्तस्स कारओ ण अत्थस्स, अत्थो तित्थगरातो पसतो। जेण भण्णति-अत्थं भासति अरहा........ । इसके बाद श्रुत का वर्णन किया गया है। तदनन्तर दशाश्रुतस्कन्ध के दस अध्ययनों के अधिकारों पर प्रकाश डालते हुए उनका क्रमशः व्याख्यान किया गया है। व्याख्यान-शैली सरल है । मूल सूत्रपाठ और चूणिसम्मत पाठ में कहीं-कहीं थोड़ा सा अन्तर दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण के रूप में कुछ शब्द नीचे उद्धृत किये जाते हैं । ये शब्द आठवें अध्ययन कल्प के अन्तर्गत हैं :२
१. इस चूणि की हस्तलिखित प्रति मुनि श्री पुण्यविजयजी की कृपा से प्राप्त
हुई अतः उनका अति आभारी हूँ। इसका आठवां अध्ययन कल्पसूत्र के नाम से अलग प्रकाशित हुआ है जिसमें मूल सूत्रपाठ, नियुक्ति, चूणि और पृथ्वीचन्द्राचार्यविरचित टिप्पनक सम्मिलित हैं : संपादक-मुनि श्री पुण्यविजयजी, गुजराती भाषान्तर-पं० बेचरदास जीवराज दोशी, चित्रविवरण-साराभाई मणिलाल नवाब, प्राप्तिस्थान-साराभाई मणिलाल नवाब,
छीपा मावजीनी पोल, अहमदाबाद, सन् १९५२. २. मुनि श्री पुण्यविजय जी द्वारा स्वीकृत पाठ के आधार पर इन शब्दों का संग्रह किया गया है।
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