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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास स्थानस्थ का अर्थ है वसंतादि में उद्यान में रहने वाली । एतद्विषयक भाष्यगाथा एवं चूर्णि इस प्रकार है : भाष्य :-अंतेउरं च तिविधं, जुण्ण णवं चेव कण्णगाणं च ।
एक्केक्कं पि य दुविधं सट्ठाणे चेव परठाणे ॥२५१३|| चूर्णि :-रण्णो अंतेपुरं तिविधं-हसियजोवणाओ अपरिभुज्जमाणीओ
अच्छंति, एयं जुण्णंतेपुरं। जोव्वणयुत्ता परिभुज्जमाणीओ नवतेपुरं । अप्पत्तजोव्वणाण रायदुहियाण संगहो कन्नतेपुरं । तं पुण खेत्ततो एक्केक्कं दुविधं-सट्ठाणे परट्ठाणे य । सट्ठा
णत्थं रायघरे चेव, परट्ठाणत्थं वसंतादिसु उज्जाणियागयं । ___ 'जे भिक्ख रणो खत्तियाण....." ( स० ७ ) का विवेचन करते हुए चूणिकार ने कोष्ठागार आदि का स्वरूप इस प्रकार बताया है : जिसमें ७७ प्रकार का धान्य हो वह कोष्ठागार है। जिसमें १६ प्रकार के रत्न हों वह भांडागार है । जहाँ सुरा, मधु आदि पानक संग्रहीत हों वह पानागार है। जहाँ दूध, दही आदि हों वह क्षीरगृह है । जहाँ ७७ प्रकार का धान्य कूटा जाता हो अथवा जहाँ गंज अर्थात् यव पड़े हों वह गंजशाला है। जहाँ अशन, पान आदि विविध प्रकार के खाद्य पदार्थ तैयार होते हों वह महानसशाला है : जत्थ सणसत्तरसाणि धण्णाणि कोट्ठागारो । भंडागारो जत्थ सोलसविहाई रयणाई। पाणागारं जत्थ पाणियकम्मं तो सुरा-मधु-सीधु-खंडग-मच्छंडियमुद्दियापभित्तीणि पाणगाणि । खीरघरं जत्थ खीरं-दधि-णवणीय-तक्का दीणि अच्छंति । गंजसाला व जत्थ सणसत्तरसाणि-धण्णाणि कोट्टिज्जंति, अहवा गंजा जवा ते जत्थ अच्छंति सा गंजसाला । महाणससाला जत्थ असणपाणखातिमादीणि णाणाविहभक्खे उवक्खडिज्जंति ।' इसी प्रकार नट, नट्ट, जल्ल, मल्ल, कथक, प्लवक, लासक आदि का अर्थ बताया गया है । दशम उद्देश
इस उद्देश की चूणि बहुत विस्तृत है। बीच-बीच में दृष्टान्त के रूप में कथानक भी दिये गये हैं। इसमें मुख्यरूप से निम्न विषयों का विवेचन है : भाषा की अगाढता, परुषता आदि तथा तत्सम्बन्धी विविध प्रायश्चित्त, आधा. कर्मिक आहार के दोष एवं प्रायश्चित्त, ग्लान की वैयावृत्य सम्बन्धी यतना, उपेक्षा एवं प्रायश्चित्त, वर्षावास, पर्युषणा, परिवसना, पयुपशमना, प्रथम समवसरण, स्थापना और ज्येष्ठग्रह की एकार्थकता, सार्थकता, विधिवत्ता आदि । १. पृ० ४५६ २. पू० ४६८
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