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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
गुणं कडीसुत्तयं, मणी सूर्यमणीमादय, तुडियं बाहुरक्खिया, तिष्णि सरातो तिसरियं, वालंभा मउडादिसु ओचूला, आगारीण वा गलोलइया, नाभि जा गच्छइ सा पलंबा, सा य उलंवा भण्णति । अट्ठारसलयाओ हारो, णवसु अड्ढहारो, विचितेहि एगसरा एगावली, मुत्तएहि मुत्तावली, सुवण्णमणिएहि कणगावली, रयर्णाहि रयणावली, उरंगुलो सुवण्णओ पट्टो, त्रिकुटो मुकुटः ।' इसमें कुंडल, गुण, मणि, तुडिय, तिसरिय, वालंभा, पलंबा, हार, अर्धहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, पट्ट और मुकुट — इन आभूषणों का स्वरूप वर्णन है ।
'जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाऐ अण्णयरं पसु-जायं वा पक्खिजायं वा .... आलिंगेग्ज.... ' ( सू. ८४ ) का विवेचन करते हुए आचार्य ने पशुपक्षी के आलिंगन आदि का निषेध किया है तथा आलिंगन, परिष्वजन, चुंबन, छेदन और विच्छेदनरूप काम-क्रीडाओं का स्वरूप बताया है । वह इस प्रकार है : आलिंगनं स्पृशनं, उपगूहनं परिष्वजनं मुखेन चुंबनं, दंतादिभिः सकृत् छेदनं, अनेकशो विच्छेदः, विविधप्रकारो वा च्छेदः विच्छेदः । २ सामान्य रीति से स्पर्श करना आलिंगन है । गाढ़ आलिंगन का नाम परिष्वजन अथवा उपगूहन है । चुम्बन मुख से किया जाता है । दंव आदि से एक बार काटना छेदन तथा अनेक बार काटना अथवा अनेक प्रकार से काटना विच्छेदन है । अष्टम उद्देश :
सप्तम उद्देश के अन्तिम सूत्र में स्त्री और पुरुष के आकारों के विषय में कुछ आवश्यक बातें कही गई हैं । अष्टम उद्देश के प्रारंभ के सूत्र में यह बताया गया है कि अकेला साधु अकेली स्त्री के साथ विहार, स्वाध्याय आदि न करे जिससे कामकथा आदि का अवसर प्राप्त न हो । कामकथा लौकिक और लोकोत्तर भेद से दो प्रकार की होती है। नरवाहनदंतकथादि लौकिक कामकथाएं हैं । तरंगवती, मलयवती, मगधसेन आदि की कथाएं लोकोत्तर कामकथा के उदाहरण हैं ।
'जे भिक्खू उज्जाणंसि जा उज्जाण-गिहंसि वा .... ' ( सू० २ - ९ ) आदि सूत्रों की व्याख्या में उद्यान, उद्यानगृह, उद्यानशाला, निर्याण, निर्याणगृह, निर्याणशाला, अट्ट, अट्टालक, चरिका, प्राकार, द्वार, गोपुर, दक, दकमार्ग, दकपथ, दकतीर, दकस्थान, शून्यगृह, शूभ्यशाला, भिन्नगृह, भिन्नशाला, कूटागार, कोष्ठागार, तृणगृह, तृणशाला, तुषगृह, तुषशाला, छुसगृह, छुसशाला, पर्यायगृह, पर्यायशाला, कर्मान्तिगृह, कर्मान्तिशाला, महागृह, महाकुल, गोगृह और
१. पू. ३९८.
२. पृ. ४११.
३. पृ. ४१५.
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