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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास और उसके भेद, संरंभ, समारंभ और आरंभ के भेद-प्रभेद, हास्य और उसकी उत्पत्ति के विविध कारण । पंचम उद्देश : ___ इस उद्देश के प्रारंभ में आचार्य भद्रबाहुस्वामिकृत एक नियुक्ति गाथा' दी गई है जिसमें चतुर्थ और पंचम उद्देश के सम्बन्ध का निर्देश है । चूणिकार ने '..."उद्देसकेन सह संबंधं वक्तूकामो आचार्यः भद्रबाहस्वामी नियुक्तिगाथामाह'२ ऐसा कह कर उनकी गाथा उद्धृत की है। इस उद्देश की चूणि में निम्न विषयों का विशेष विवेचन किया गया है : प्राभृतिक शय्या और उसके छादन आदि भेद, सपरिकर्म शय्या और उसके चौदह भेद, संभोग का विविध दृष्टियों से वर्णन । संभोग का अर्थ इस प्रकार है : 'सं' एगीभावे 'भुज' पालनाभ्यवहारयोः, एकत्र भोजनं संभोगः, अहवा समं भोगो संभोगो यथोक्तविधानेनेत्यर्थः । संभुजते वा संभोगः, संभज्जते वा, स्वस्य वा भोगः संभोगः। संभोग का मुख्य अर्थ है यथोक्त विधि से एकत्र आहारोपभोग । जिन साधुओं में परस्पर खान-पान आदि का व्यवहार होता है वे सांभोगिक कहलाते हैं। सांभोगिक साधुओं का स्वरूप समझाते हुए चूर्णिकार ने कुछ आख्यान दिये हैं। इनमें से एक आख्यान में निम्नलिखित ऐतिहासिक पुरुषों का उल्लेख किया गया है :४ वर्धमान-स्वामी के शिष्य सुधर्मा, सुधर्मा के शिष्य जंबू, जंबू के शिष्य प्रभव, प्रभव के शिष्य शय्यंभव, शय्यंभव के शिष्य यशोभद्र, यशोभद्र के शिष्य संभूत, संभूत के शिष्य स्थूलभद्र, स्थूलभद्र के दो युगप्रधानशिष्य--आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती, चन्द्रगुप्त का पुत्र बिंदुसार, बिंदुसार का पुत्र अशोक, अशोक का पुत्र कुणाल । षष्ठ उद्देश :
आदि के पाँच उद्देशों में गुरु-लघुमास का वर्णन किया गया। प्रस्तुत उद्देश में चातुर्मासिक गुरु का वर्णन है । इसका एकमात्र विषय है मैथुनसम्बन्धी दोषों और प्रायश्चित्तों का वर्णन । 'जे भिक्खू माउग्गामं मेहणपडियाए विण्णवेति-' (सू० १) का व्याख्यान करते हुए चूर्णिकार लिखते हैं : मातिसमाणो गामो मातुगामो, मरहट्टविसयभासाऐ वा इत्थी माउग्गामो भण्णति । मिहुणभावो मेहुणं, मिथुनकर्म वा मेहुनं-अब्रह्ममित्यर्थः । मिथुनभावप्रतिपत्तिः। अथवा पडिया मैथुनसेवनप्रतिज्ञेत्यर्थः विज्ञापना प्रार्थना अथवा तद्भावसेवनं विज्ञापना, इह तु प्रार्थना परिगृह्यते । १. पृ० ३०७ ( गा० १८९५ ). २. वही. ३. पृ० ३४१. ४. पृ० ३६०-३६१.
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