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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
उसका पिण्ड कितनी तरह का होता है, ( ४ ) वह अशय्यातर कब होता है, (५) वह सागारिक किस संयत द्वारा परिहर्तव्य है, (६) उस सागारिक- पिण्ड के ग्रहण में क्या दोष है, (७) किस अवस्था में उसका पिण्ड ग्रहण किया जा सकता है, (८) किस यतना से उसका ग्रहण करना चाहिए, (९) एक सागारिक से ही ग्रहण करना चाहिए अथवा अनेक सागरिकों से भी ग्रहण करना चाहिए | सागारिक के पाँच एकार्थक शब्द हैं : सागारिक, शय्यातर, दाता, घर और तर ।' इन पाँचों की व्युत्पत्ति एवं सार्थकता पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । बृहत्कल्पभाष्य में भी इस विषय पर काफी विवेचन उपलब्ध है ।
'जे भिक्खू उडुबद्धियं सेज्जा- संथारयं ' ( सू० ५० ) का विवेचन करते हुए आचार्य शय्या और संस्तारक का भेद बताते हैं । शय्या सर्वांगिका अर्थात् पूरे शरीर के बराबर होती है जबकि संस्तारक ढाई हस्तप्रमाण होता है : सव्वंगिया सेज्जा, अड्ढाइयहत्थो संथारो । संस्तारक दो प्रकार का होता है : परिशाटी और अपरिशाटी । इनके स्वरूप, भेद-प्रभेद, ग्रहण, दोष, प्रायश्चित्त आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है ।
विप्रनष्ट अर्थात् विधिपूर्वक रक्षा करते हुए भी खो जानेवाले प्रातिहारिक, शय्यासंस्तारक आदि की खोज करने की आवश्यकता, विधि आदि पर प्रकाश डालते हुए दूसरे उद्देश के अन्तिम सूत्र 'जे भिक्खू इत्तरियं उवहिं ण पडिलेहेति' ( सू० ५९ ) का विश्लेषण करते हुए आचार्य कहते हैं कि जिनकल्पियों के लिए बारह प्रकार की, स्थविरकल्पियों के लिए चौदह प्रकार की और आर्याओं के लिए पचीस प्रकार की उपधि होती है । ३ जिनकल्पिक दो प्रकार के हैं : पाणिपात्रभोजी और प्रतिग्रहधारी । इन दोनों के पुनः दो-दो भेद हैं : सप्रावरण अर्थात् सवस्त्र और अप्रावरण अर्थात् निर्वस्त्र | जिनकल्प में उपधि के आठ विभाग हैं : दो, तीन, चार, पाँच, नौ, दस, ग्यारह और बारह । निर्वस्त्र पाणिपात्र की जघन्य उपधि दो प्रकार की है : रजोहरण और मुखवस्त्रिका | वही पाणिपात्र यदि वस्त्र है और एक कपड़ा ग्रहण करता है तो उसकी उपधि तीन प्रकार की हो जाती है । इसी प्रकार आगे की उपधियाँ भी समझ लेनी चाहिए । स्थविरकल्पियों एवं आर्याओं के लिए भी इसी प्रकार विभिन्न उपधियों का वर्णन किया गया है ।" यहाँ तक विशेषनिशीथचूणि के द्वितीय उद्देश का अधिकार है । तृतीय उदेश :
इस उद्देश के प्रारंभ में भिक्षाग्रहण के कुछ दोषों एवं प्रायश्चित्तों पर प्रकाश १. सागारिय सेज्जायर दाता य घरे तरे वा वि । – पृ० १३०, गा० ११४०. २. पृ० १४९. ३. पृ० १८८. ४. वही.
५. पृ० १८८ - १९३.
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