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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अहवा अप्रभुवि जो बलवं सो वि बलवं भण्णति । सो पुण गृहपतिः गामसामिगो वा तेणगादि वा । जो प्रभुत्व करता है वह बलवान् कहलाता है । अथवा अप्रभु भी बलशाली होने पर बलवान् कहलाता है । गृहपति, ग्रामस्वामी आदि प्रथम कोटि के पुरुष हैं । स्तेन अर्थात् चोर आदि द्वितीय कोटि के हैं ।
नियत ( निश्चित - ध्रुव - निरंतर) पिण्ड, वास आदि के दोषों का वर्णन करने के बाद आचार्य 'जे भिक्खू पुरे संथवं पच्छा संथवं वा करेइ (मू३८) का व्याख्यान इस प्रकार करते हैं : संथवो थुती, अदत्ते दाणे पुव्वसंथवो, दिण्णे पच्छासंथवो । जो तं करेति सातिज्जति वा तस्स मासल हुँ संस्तव का अर्थ है स्तुति । साधु दाता की दो प्रकार से स्तुति कर सकता है: एक तो दान देने के पूर्व और दूसरी दान देने के पश्चात् । जो साधु इस प्रकार की स्तुति करता है अथवा उसका अनुमोदन करता है उसे मासलघु प्रायश्चित्त करना पड़ता है । संस्तव का विशेष विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने 'अत्र नियुक्तिमाह' ऐसा लिखकर निम्न नियुक्ति-गाथा उद्धृत की है :
दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य संथवो मुणेयव्वो ।
यह ६४ प्रकार का
आत-पर-तदुभए वा, एक्केक्के सो पुणो दुविधो ॥। १०२५ ।। द्रव्यसंस्तव का विस्तार करते हुए आचार्य कहते हैं कि हैं । इसके लिए धान्य, रत्न, स्थावर, द्विपद, चतुष्पद आदि के गये हैं । वे ये हैं : २४ प्रकार का धान्य, २४ प्रकार के स्थावर, २ प्रकार के द्विपद, १० प्रकार के चतुष्पद और ६४ वां कुप्य ( उपकरण ) ।
६४ प्रकार गिनाये रत्न, ३ प्रकार के
धान्य - १. जव, २. गोधूम, ३. शालि, ४. व्रीहि, ५. षष्टिक, ६. कोद्रव, ७. अनया, ८. कंगू, ९. रालक, १०. तिल, ११. मुद्ग, १२. माष, १३. अतसी, १४. हिरिमंधा, १५. त्रिपुडा, १६. निष्पाव, १७. अलिसिदा १८. मासा, १९. इक्षु, २०. मसूर, २९. तुवर, २२. कुलत्थ, २३. धानक, २४. कला ।
भाष्य :- - धण्णाइ चउव्वीसं, जव - गोहुम- सालि-वीहि साट्ठिया ।
कोद्दव - अणया- कंगू, रालग - तिल - मुग्ग- मासा य ।। १०२९ ।। चूर्णि :- बृहच्छिरा कंगू, अल्पतरशिरा रालकः । भाष्य : - अतसि हिरिमंथ तिपुड, णिप्फाव अलसिंदरा य मासा य । इक्खू मसूर तुवरी, कुलत्थ तह धाणग- कला य ।। १०३० ॥
१. पू० १०१.
२. पृ० १०८. ३. पू० १०९.
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