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अष्टम प्रकरण
सूत्रकृतांगचूर्णि इस चूणि' की शैली भी वही है जो आचारांगचूणि की है। इसमें निम्न विषयों पर प्रकाश डाला गया है : मंगलचर्चा, तीर्थसिद्धि, संघात, विस्रसाकरण, बन्धनादिपरिणाम, भेदादिपरिणाम; क्षेत्रादिकरण, आलोचना, परिग्रह, ममता, पंचमहाभूतिक, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकात्मवाद, स्कन्धवाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, कर्तृवाद, त्रिराशिवाद, लोकविचार, प्रतिजुगुप्सा (गोमांस, मद्य, लसुन, पलांडु आदि के प्रति अरुचि), वस्त्रादिप्रलोभन, शूरविचार; महावीरगुण, महावीरगुणस्तुति, कुशीलता, सुशीलता, वीर्यनिरूपण, समाधि, दानविचार, समवसरणविचार, वैनयिकवाद, नास्तिकमतचर्चा, सांख्यमतचर्चा, ईश्वरकर्तृत्वचर्चा, नियतिवादचर्चा, भिक्षुवर्णन, आहारचर्चा, वनस्पतिभेद, पृथ्वीकायादिभेद, स्याद्वाद, आजीविकमतनिरास, गोशालकमतनिरास, बौद्धमतनिरास, जातिवादनिरास इत्यादि ।
प्रस्तुत चूणि संस्कृतमिश्रित प्राकृत में लिखी गई है। इतना ही नहीं, चणि को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें प्राकृत से भी संस्कृत का प्रयोग अधिक मात्रा में है । नीचे कुछ उद्धरण दिये जाते हैं जिन्हें देखने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि इसमें प्राकृत का कितना अंश है व संस्कृत का कितना?
"एतदि' ति यदुक्तमुच्यते वा सारं विद्धीति वाक्यशेषः, यत्कि ? उच्यते, जे ण हिंसति किंचणं, किंचिदिति त्रसं स्थावरं वा, अहिंसा हि ज्ञानगतस्य फलं, तथा चाह योऽधीत्य शास्त्रमखिलं "एवं खु णाणिणो सारं--
-सूत्रकृतांगचूणि, पृ० ६२. बिउट्ठितो णाम विच्युतो, यथा व्युत्थितोऽस्य विभवः, संपत् व्युत्थिताः, संयमप्रतिपन्न इत्यर्थः, पावस्थादोनामन्यतमेन वा क्वचिन्प्रमादाच्च कार्येण वा त्वरितं गच्छन् जहा तुझं ण--?
-वही, पृ० २८८. लोगेवि भण्णइ-छिण्णसोता न दिति, सुटठु संजुत्ते सुसंजुत्ते, सुटठु समिए सुसमिए, समभावः सामायिकं सो भणई-सुठ्ठ सामाइए सुसा१. श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९४१.
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