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दशवेकालिकचूर्णि
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तिवायविग्धपरिहारिणा य निज्जूढमेव, अतो विगते काले विकाले दसकमज्ज्ञयणाण कर्तामिति दसवेकालियं । चउपोरिसितो सज्झायकाले तम्मि विगते वि पढिज्जतीति विगयकालियं दसवेकालियं । दसमं वा वेतालियो पजाति वृत्तहि नियमितमज्झयणमिति दसवेतालियं । "
षड्जीवनिका नामक चतुर्थ अध्ययन के अर्थाधिकार का विचार करते हुए चूर्णिकार कहते हैं :
जीवाजीवाहिगमो गाहा । पढमो जीवाहिगमो, अहिगमो - परि ण्णाणं १ ततो अजीवाधिगमो २ चरित्तधम्मो ३ जयणा ४ उवएसो ५ धम्मफलं । तस्स चत्तारि अणुओगद्दारा जहा आवस्सए । नामनिप्फण्णो भण्णति—३
दशकालिक के अंत की दो चूलाओं -- रतिवाक्यचूला और विविक्तचर्या - चूला की रचना का प्रयोजन बताते हुए आचार्य कहते हैं :
धम्मे धितिमतो खुड्डियायारोवत्थितस्स विदित्तछक्कायवित्थरस्स एसणीयादिधारितसरीरस्स समत्तायारावत्थितस्स वयणविभागकुसलस्स सुप्पणिहितजोगजुत्तस्स विणीयस्स दसमज्झयणोपवण्णितगुणस्स समत्त - सकलभिक्खुभावस्स विसेसेण थिरीकरणत्थं विवित्तचरियोवदेसत्थं च उत्तरतं तमुपदिट्ठे चूलितादुतं रतिवक्कं विवित्तचरिया चूलिता य । तत्थ धम्मे थिरीकरणत्था रतिवक्कणामधेया पढमचूला भणिता । इदाणि विवित्तचरियोवदेसत्था बितिया चूला भाणितव्वा । *
अन्त में चूर्णिकार ने अपनी शाखा का नाम, अपने गुरु का नाम तथा अपना खुद का नाम बताते हुए निम्न गाथाएँ लिखकर चूर्णि की पूर्णाहुति की है :
वीरवरस्स भगवतो तित्थे कोडीगणे सुविपुलम्मि । गुणगणवइराभस्सा वेरसामिस्स साहाए ॥ १ ॥ महरिसिसरिससभावा भावाऽभावाण मुणितपरमत्था । रिसिगुत्तखमासमणो खमासमाणं निधी आसि ॥ २ ॥
१. पृ० ७-८.
२. नियुक्तिगाथा - जीवाजीवाहिगमो चरित्तधम्मो तदेव जयणा य । उवएसो धम्मफलं छज्जीवणियाइ अहिगारा ॥
३. पृ० १४६-७.
४. पृ० २९७.
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