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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दूसरी बात यह है कि चूणियों में अधिकांश गाथाएं पूरी की पूरी नहीं दी जाती है अपितु प्रारम्भ के कुछ शब्द उद्धृत कर केवल उनका निर्देश कर दिया जाता है। कुछ ही गाथाएं ऐसी होती है जो पूरी उद्धृत की जाती हैं। हम यहां हरिभद्र की टीका में उपलब्ध कुछ नियुक्ति-गाथाएँ' उद्धृत कर यह दिखाने का प्रयत्न करेंगे कि उनमें से कौनसी दोनों चूणियों में पूरी की पूरी हैं; कौन-सी अपूर्ण अर्थात् संक्षिप्तरूप में हैं, किनका अर्थ-रूप से निर्देश किया गया है और किनका बिलकुल उल्लेख नहीं है ?
सिद्धिगइमुवगयाणं कम्मविसुद्धाण सव्वसिद्धाणं ।
नमिऊणं दसकालियणिज्जुति कित्तइस्सामि ।। १ ॥ यह गाथा न तो जिनदासगणि की चूणि में है, न अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि में । इनमें इसका अर्थ अथवा संक्षिप्त उल्लेख भी नहीं है।
अपहत्तपत्ताइं निदिसिउं एत्थ होइ अहिगारो।
चरणकरणाणुजोगेण तस्स दारा इमे होति ॥ ४॥ इस गाथा का अर्थ तो दोनों चूणियों में है किन्तु पूरी अथवा अपूर्ण गाथा एक में भी नहीं है।
णामं ठवणा दविए माउयपयसंगहेक्कए चेव । . पज्जवभावे य तहा सत्तेए एक्कगा होति ।। ८॥
यह गाथा दोनों चूर्णियों में पूरी की पूरी उधृत की गई है। यह इन चूर्णियों की प्रथम नियुक्ति-गाथा है जो हारिभद्रीय टीका की आठवीं नियुक्तिगाथा है।
दव्वे अद्ध अहाउअ उवक्कमे देसकालकाले य ।
तह य पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भावेणं ॥ ११ ॥ यह गाथा भी दोनों चूणियों में इसी प्रकार उपलब्ध है।
आयप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती ।
कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा ॥ १६ ॥ यह गाथा दोनों चूर्णियों में संक्षिप्तरूप से निर्दिष्ट है, पूर्णरूप में उद्धृत नहीं।
दुविहो लोगुत्तरिओ सुअधम्मो खलु चरित्तधम्मो अ। सुअधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥ ४३ ॥
१. देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, ग्रंथांक ४७.
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