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निशीथ-विशेष चूर्णि हुए आचार्य ने आचारादि पांच वस्तुओं की ओर निर्देश किया है : आचार, अग्र, प्रकल्प, चूलिका और निशीथ ।' इन सब का निक्षेप-पद्धति से विचार करते हुए निशीथ का अर्थ इस प्रकार बताया है : निशीथ इति कोऽर्थः । निशीथ-सदपट्ठीकरणत्थं वा भण्णति
जं होति अप्पगासं तं तु णिसीहंति लोगसंसिद्धं ।
जं अप्पगासधम्मं, अण्णं पि तयं निसीधं ति ॥ ___ जमिति अणिदिळं । होति भवति । अप्पगासमिति अंधकारं। जकारणिद्देसे तगारो होइ । सदस्स अवहारणत्थे तुगारो। अप्पगासवयणस्सणिण्णयत्थे णिसीहंति । लोगे वि सिद्धणिसीहं अप्पगासं । जहा कोइ पावासिओ पओसे आगओ, परेण बितिए दिणे पूच्छिओ 'कल्ले के वेलमागओ सि? भणति 'णिसीहे त्ति रात्रावित्यर्थः।२ निशीथ का अर्थ है अप्रकाश अर्थात् अंधकार । अप्रकाशित वचनों के निर्णय के लिए निशीथसूत्र है । लोक में भी निशीथ का प्रयोग रात्रि-अंधकार के लिए होता है इसी प्रकार निशीथ के कर्मपकनिषदन आदि अन्य अर्थ भी किये गये हैं। भावपंक का निषदन तीन प्रकार का होता है : क्षय, उपशम और क्षयोपशम । जिसके द्वारा अष्टविध कर्मपंक शान्त किया जाए वह निशीथ है।
आचार का विशेष विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने नियुक्ति-गाथा को भद्रबाहुस्वामिकृत बताया है । इस गाथा में चार प्रकार के पुरुष-प्रतिसेवक बताये गये हैं जो उत्कृष्ट, मध्यम अथवा जघन्य कोटि के होते हैं । इन पुरुषों का विविध भंगों के साथ विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसी प्रकार स्त्री और नपुंसक-प्रतिसेवकों का भी स्वरूप बताया गया है । यह सब निशीथ के व्याख्यान के बाद किये गये आचारविषयक प्रायश्चित्त के विवेचन के अन्तर्गत है। प्रति-- सेवक का वर्णन समाप्त करने के बाद प्रतिसेवना और प्रतिसेवितव्य का स्वरूप समझाया गया है। प्रतिसेवना के स्वरूपवर्णन में अप्रमादप्रतिसेवना, सहसात्करण, प्रमादप्रतिसेवना, क्रोधादि कषाय, विराधनात्रिक, विकथा, इन्द्रिय, निद्रा आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन किया गया है। निद्रा-सेवन की मर्यादा की ओर निर्देश करते हुए चूर्णिकार ने एक श्लोक उद्धत किया है जिसमें यह बताया गया है कि आलस्य, मैथुन, निद्रा, क्षुधा और आक्रोश-ये पाँचों सेवन करते रहने से बराबर बढ़ते जाते हैं :
१. भाष्यगाथा ३. २. पृ. ३४. ३. पृ. ३४-५. ४. एसा भद्दबाहुसामि-कता गाहा-पृ. ३८. ५. पृ. ५४
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