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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हसति वा मुखमावृत्येति हस्तः, आदाननिक्षेपादिसमर्थो शरीरैकदेशो हस्तोऽतस्तेन यत् करणं-व्यापारइत्यर्थः, स च व्यापारः क्रिया भवति, अतः सा हस्तक्रिया क्रियमाणा कर्मभवतीत्यर्थः । 'साइज्जति' साइज्जणा दुविहा कारावणे अणुमोदणे...."' जो क्षुध अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्म का भेद अर्थात् विनाश करता है वह भिक्षु है। जिससे हनन किया जाता है अथवा जो मुख को ढक कर हंसता है वह हस्त है। आदान-निक्षेप आदि में समर्थ हस्त की जो क्रिया अर्थात् व्यापार है वह हस्तक्रिया है। इस प्रकार की क्रियमाण हस्तक्रिया कर्मरूप होती है। साइज्जणा अर्थाद् स्वादना दो प्रकार को है : कारण (निर्मापन) अर्थात् दूसरों से करवाना और अनुमोदन अर्थात् दूसरे का समर्थन करना । इस प्रकार क्रिया के तीन रूप हुए : स्वयं करना, दूसरों से करवाना और करते हुए का अनुमोदन करना। इस प्रकार प्रथम सूत्र का शब्दार्थ करने के बाद आचार्य ने भिक्षु, हस्त और कर्म का निक्षेप-पद्धति से विश्लेषण किया है । हस्तकर्म दो प्रकार का है : असंक्लिष्ट और संक्लिष्ट । असंक्लिष्ट हस्तकम आठ प्रकार का है : छेदन, भेदन, घर्षण, पेषण, अभिघात, स्नेह, काय और क्षार । संक्लिष्ट हस्तकर्म दो प्रकार का है : सनिमित्त और अनिमित्त । सनिमित्त हस्तकर्म तीन प्रकार के कारणों से होता है : शब्द सुनकर, रूपादि देखकर और पूर्व अनुभूत विषय का स्मरण कर । पुरुष और स्त्री के इस प्रकार के हस्तकर्मों का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने साधुओं और साध्वियों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान किया है।
द्वितीय सूत्र 'जे भिक्खू अंगादाणं कठेण वा कलिंचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा संचालेइ संचालतं वा सातिज्जति' का व्याख्यान करते हुए आचार्य कहते हैं कि सिर आदि अंग हैं, कान आदि उपांग है और नख आदि अंगोपांग हैं। इस प्रकार शरीर के तीन भाग हैं : अंग, उपांग और अंगोपांग । अंग आठ हैं : सिर, उर, उदर, पीठ, दो बाँह और दो ऊरु । कान, नाक, आँखें जंघाएँ, हाथ और पैर उपांग हैं। नख, बाल, श्मश्रु, अंगुलियाँ, हस्ततल और हस्तोपतल अंगोपांग हैं । हथेली के चारों ओर का उठा हुआ भाग हस्तोपतल कहलाता है। इन सबका संचालन भी सनिमित्त अथवा अनिमित्त होता है । प्रस्तुत सूत्र का विशेष व्याख्यान पूर्ववत् कर लेना चाहिए । इसी प्रकार आगे के सूत्रों का भी संक्षिप्त व्याख्यान किया गया है।
चौदहवें सूत्र 'जो भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलिमिलि वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेति,कारेंतं वा सातिज्जति' का व्याख्यान
१. द्वितीय भाग, पृ० २.
२. पृ० ४-७.
३. पृ० २६-२७.
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