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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पञ्च वर्धन्ति कौन्तेय ! सेव्यमानानि नित्यशः।
आलस्यं मैथुनं निद्रा, क्षुधाऽऽक्रोशश्च पञ्चमः ॥ स्त्यानद्धि निद्रा का स्वरूप बताते हुए चणिकार कहते हैं कि जिसमें चित्त थीण अर्थात् स्त्यान हो जाए-कठिन हो जाए-जम जाए वह स्त्यानदि निद्रा है। इस निद्रा का कारण अत्यन्त दर्शनावरण कर्म का उदय है : इद्धं चित्त तं थीणं जस्स अच्चंतदरिसणावरणावरणकम्मोदया सो थीणद्धी भण्णति । तेण य थीणण ण सो किचि उवलभति ।' स्त्यानद्धि का स्वरूप विशेष स्पष्ट करने के लिए आचार्य ने चार प्रकार के उदाहरण दिये हैं : पुद्गल, मोदक, कुम्भकार और हस्तिदंत । तेजस्काय आदि की व्याख्या करते हुए चूणिकार ने 'अस्य सिद्धसेनाचार्यों व्याख्यां करोति, एतेषां सिद्धसेनाचार्यों व्याख्यां करोति, इमा पुण सागणिय-णिक्खितदाराण दोण्ह वि भद्दबाहुसामिकता प्रायश्चित्तव्याख्यानगाथा, एयस्स इमा भद्दबाहुसामिकता वक्खाणगाहा' आदि शब्दों के साथ भद्रबाहु और सिद्धसेन के नामों का अनेक बार उल्लेख किया है । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकायसम्बन्धी यतनाओं, दोषों, अपवादों और प्रायश्चित्तों का प्रस्तुत पीठिका में अति विस्तृत विवेचन किया गया है । खान, पान, वसति, वस्त्र, हलन, चलन, शयन, भ्रमण, भाषण, गमन, आगमन आदि सभी आवश्यक क्रियाओं के विषय में आचारशास्त्र की दृष्टि से सूक्ष्म विचार किया गया है।
प्राणातिपात आदि का व्याख्यान करते हुए चूर्णिकार ने मृषावाद के लौकिक और लोकोत्तर-इन दो भेदों का वर्णन किया है तथा लौकिक मृषावाद के अन्तर्गत मायोपधि का स्वरूप बताते हुए चार धूर्तो की कथा दी है । इस धूर्ताख्यान के चार मुख्य पात्रों के नाम हैं : शशक, एलाषाढ, मूलदेव और खंडपाणा । इस आख्यान का सार भाष्यकार ने निम्नलिखित तीन गाथाओं में दिया है :
सस-एलासाढ मूलदेव. खंडा य जुण्णउज्जाणे । सामत्थणे को भत्त, अक्खातं जो ण सद्दहति ।।२९४।। चोरभया गावीओ, पोट्टलए बंधिऊण आणेमि । तिलअइरूढकुहाडे, वणगय मलणा य तेल्लोदा ॥२९५।। वणगयपाटण कुडिय, छम्मासा हत्थिलग्गण पूच्छे । रायरयग मो वादे, जहिं पेच्छइ ते इमे वत्था ॥२९६॥
1. काय यो जोह का काम करणार
१. पृ. ५५.
२. पृ. ७५, ७६ आदि
३. पृ. १०२.
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