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निशीथ-विशेषचूर्णि
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चूर्णिकार ने इन गाथाओं के आधार पर संक्षेप में धूर्तकथा देते हुए लिखा है कि शेष बातें धुत्तक्खाणग (धूर्ताख्यान ) के अनुसार समझ लेनी चाहिए : सेसं धुत्तक्खाणगानुसारेण णेयमिति ।' यहाँ तक लौकिक मृषावाद का अधिकार है । इसके बाद लोकोत्तर मृषावाद का वर्णन है । इसी प्रकार अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन आदि का वर्णन किया गया है । यह वर्णन मुख्यरूप से दो भागों में विभाजित है। इनमें से प्रथम भाग दपिकासम्बन्धी है, दूसरा भाग कल्पिकासम्बन्धी । दपिकासम्बन्धी भाग में तत्तद्विषयक दोषों का निरूपण करते हुए उनके सेवन का निषेध किया गया है जबकि कल्पिकासम्बन्धी भाग में तत्तद्विषयक अपवादों का वर्णन करते हुए उनके सेवन का विधान किया गया है । ये सब मूलगुणप्रतिसेवना से सम्बद्ध हैं । इसी प्रकार आचार्य ने उत्तरगुणप्रतिसेवना का भी विस्तार से व्याख्यान किया है। उत्तरगुण पिण्डविशुद्धि आदि अनेक प्रकार के हैं। इनका भी दपिका और कल्पिका के भेद से विचार किया गया है। जैसाकि चूर्णिकार कहते हैं : गता या मूलगुणपडिसेवणा इति । इदाणि उत्तरगुणपडिसेवणा भण्णति । ते उत्तरगुणा पिंडविसोहादओ अणेगविहा। तत्थ पिंडे ताव दप्पियं कप्पियं च पडिसेवणं भण्णति ।२ इस प्रकार पीठिका के अन्त तक दर्पिका और कल्पिका का अधिकार चलता है।
पीठिका की समाप्ति करते हुए इस बात का विचार किया गया है कि निशीथपीठिका का यह सत्रार्थ किसे देना चाहिए और किसे नहीं ? अबहुश्रुत आदि निषिद्ध पुरुषों को ही देने से प्रवचन-घात होता है अत: बहुश्रुत आदि सुयोग्य पुरुषों को निशीथपीठिका का यह सूत्रार्थ देना चाहिए । यहाँतक पीठिका का अधिकार है। प्रथम उदेदश:
प्रथमउद्देश के प्रथम सूत्र 'जे भिक्खू हत्थकम्मं करेइ, करेंतं वा साइ-. ज्जइ' का शब्दार्थ भाष्यकार ने इस प्रकार किया है :
जेत्ति य खलु णिद्देसे भिक्खू पुण भेदणे खुहस्स खलू। हत्थेण जं च करणं, कीरति तं हत्थकम्म ति ॥ ४९७ ॥
इस गाथा का चूर्णिकार ने पुनः इस प्रकार शब्दार्थ किया है : 'जे इति निदेसे, ‘खलु' विसेसणे, किं विशिनष्टि ? भिक्षोर्नान्यस्य, 'भिदि' विदारणे, 'क्षुध' इति कर्मण आख्यानं, ज्ञानावरणादिकर्म भिनत्तीति भिक्षुः, भावभिक्षोविशेषणे 'पुनः' शब्दः, 'हत्थे' ति हन्यतेऽनेनेति हस्तः, १. पृ. १०५. आचार्य हरिभद्रकृत धूर्ताख्यान का आधार यह प्राचीन कथा है। २. पृ. १५४. ३. पु. १६५-१६६.
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