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दशम प्रकरण
दशवैकालिकचूर्णि ( अगस्त्य सिंहकृत )
यह चूर्ण' जिनदासगणि की कही जानेवाली दशवैकालिकचूर्णि से भिन्न है इसके लेखक हैं वज्रस्वामी की शाखा -- परंपरा के एक स्थविर श्री अगस्त्य सिंह | यह प्राकृत में है । भाषा सरल एवं शैली सुगम है । इसकी व्याख्यानशैली के कुछ नमूने यहाँ प्रस्तुत करना अप्रासंगिक न होगा । आदि, मध्य और अन्त्य मंगल की उपयोगिता बताते हुए चूर्णिकार कहते हैं :
आदिमंगलेण आरम्भप्पभिति णिव्विसाया सत्यं पडिवज्जति, मज्झमंगलेण अव्वासंगेण पारं गच्छति, अवसाणमंगलेण सिस्स - पसिस्ससंता पडिवाएंति । इमं पुण सत्थं संसारविच्छेयकरं ति सव्वमेव मंगलं तहावि विसेसो दरिसिज्जति - आदि मंगलमिह 'धम्मो मंगलमुक्कट्ठ' ( अध्य० १, गा० १ ) धारेति संसारे पडमाणमिति धम्मो, एतं च परमं समस्सासकारणं ति मंगलं । मज्झे धम्मत्थकामपढमसुत्तं 'णाणदंसणसंपण्णं संजमे य तवे रयं' ( अध्य० ६, गा० १ ), एवं सो चेव धम्मो विसेसिज्जति, यथा - 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' ( तत्त्वाअ० १-१ ) इति । अवसाणे आदिमज्झदिट्ठविसेसियस्स फलं दरिसिज्जति 'छिंदि जातोमरणस्स बंधणं उवेति भिक्खू अपुणागमं गति' ( अध्य० १०, ग० २१ ), एवं सफलं सकलं सत्थं ति ।
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दशकालिक, दशवैकालिक अथवा दशवैतालिक की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है :
'दशकं अज्झयणाणं कालियं निरुत्तेण विहिणा ककारलोपे कृते दसकालियं । अहवा वेकालियं, मंगलत्थं पुव्वण्हे सत्थारंभो भवति, भगवया पुण अज्जसेज्जवेणं कहमवि अवरहकाले उवयोगो कतो, काला
१. प्रस्तुत चूर्णि की हस्तलिखित प्रति मुनि श्री पुण्यविजयजी की कृपा से प्राप्त हुई अतः लेखक मुनि श्री का अत्यन्त आभारी है । यह प्रति जैसलमेर ज्ञानभंडार से प्राप्त प्राचीन प्रति की प्रतिलिपि है ।
२. पु० २.
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