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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्राणैः प्रियतराः पुत्राः, पुत्रैः प्रियतरं धनम् । स तस्य हरते प्राणान्, यो यस्य हरते धनम् ॥
-वही, पृ० ५५. अपरिग्रह की प्रशंसा करते हुए कहा गया है :
तस्मै धर्मभते देयं, यस्य नास्ति परिग्रहः। परिग्रहे तु ये सक्ता, न ते तारयितु क्षमाः ॥
-वही, पृ० ५९. कामभोग से व्यक्ति कभी तृप्त नहीं होता, इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा गया है:
नाग्निस्तुष्यति काष्ठानां, नापगानां महोदधिः। नान्तकृत्सर्वभूतानां, न पुसां वामलोचना ॥
-वही, पृ० ७५. साधु को किसी वस्तु को लाभ-प्राप्ति होने पर मद नहीं करना चाहिए तथा अलाभ-अप्राप्ति होने पर खेद नहीं करना चाहिए। जैसा कि कहा गया है :
लभ्यते लभ्यते साधु, साधु एव न लभ्यते। अलब्धे तपसो वृद्धिलब्धे देहस्य धारणा ।।
-पृ० ८१. इसी प्रकार स्थान-स्थान पर प्राकृत गाथाएँ भी उद्धृत की गई हैं। इन उद्धरणों से विषय विशेष रूप से स्पष्ट होता है एवं पाठक तथा श्रोता की रुचि में वृद्धि होती है।
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