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जैन साहित्य का बृहद इतिहास जं एत्थं उस्सुत्तं, अयाणमाणेण विरतितं होज्जा । तं अणुओगधरा मे, अणचितेउ समारंतु ॥ ४ ॥
-वही, पृ. २८३. दशवैकालिकचूणि भी निःसन्देह उन्हीं आचार्य को कृति है जिनकी उत्तराध्ययनचूणि है इतना ही नहीं, दशवकालिकचूणि उत्तराध्ययनणि से पहले लिखी गई है। इसका प्रमाण उत्तराध्ययनणि में मिलता है जो इस प्रकार है : षष्ठोपि चित्तो नानाप्रकारो प्रकीर्णतपोभिधीयते, तदन्यत्राभिहितं, शेषं दशवैकालिकचौँ अभिहितं."।' यहाँ आचार्य ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि प्रकीर्णतप के विषय में अन्यत्र कह दिया गया है और शेष दशवकालिकचूर्णि में कह दिया गया है । जिस स्वर में आचार्य ने यह लिखा है कि इसके विषय में अन्यत्र कह दिया गया है उसो स्वर में उन्होंने यह भी लिखा है कि शेष दशवैकालिकचूणि में कह दिया गया है। इस स्वरसाम्य को देखते हुए यह कथन अनुपयुक्त नहीं कि उत्तराध्ययन और दशवकालिक की चूणियाँ एक ही आचार्य की कृतियाँ हैं तथा दशवैकालिकचूणि की रचना उत्तराध्ययनचूणि से पूर्व की है।
१. उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० २७४.
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