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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इन तीनों मतों के समर्थन के रूप में भी कुछ गाथाएं दी गई हैं। आचार्य ने केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रमभावित्व का समर्थन किया है। एतद्विषयक विस्तृत चर्चा विशेषावश्यकभाष्य में देखनी चाहिए।'
श्रुतनिश्रित, अश्रुतनिश्रित आदि भेदों के साथ आभिनिबोधिकज्ञान का सविस्तार विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने श्रुतज्ञान का अति विस्तृत व्याख्यान किया है। इस व्याख्यान में संज्ञोश्रुत, असंज्ञीश्रुत, सम्यक्श्रुत, मिथ्याश्रुत, सादिश्रुत, अनादिश्रुत, गमिकश्रुत, अगमिकश्रुत, अंगप्रविष्टश्रुत, अंगबाह्यश्रुत, उत्कालिकश्रुत, कालिकश्रुत आदि के विविध भेदों का समावेश किया गया है। द्वादशांग की आराधना के फल की ओर संकेत करते हुए आचार्य ने निम्न गाथा में अपना परिचय देकर ग्रन्थ समाप्त किया है :
णिरेणगगमत्तणहसदा जिया, पसुपतिसंखगजट्ठिताकुला। कमट्ठिता धीमतचितियक्खरा, फुडं कहेयंतभिघाणकत्तुणो ॥१॥
-नन्दीचूणि (प्रा. टे. सो.), पृ. ८३.
१. विशेषावश्यकभाष्य, गा० ३०८९-३१३५.
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