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आवश्यकचूर्णि
२७९ न प्रतिज्ञामणुपालयन्ति ते वि पंच पासत्थादी ण वंदितव्वा ।' आगे आचार्य ने कुशीलसंसर्गत्याग, लिंग, ज्ञान-दर्शन-चारित्रवाद, आलंबनवाद, वंद्यवंदकसंबंध, वंद्यावंद्यकाल, वंदनसंख्या, वंदनदोष, वंदनफल आदि का दृष्टान्तपूर्वक विचार किया है।
प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन का विवेचन करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि प्रतिक्रमण का शब्दार्थ है प्रतिनिवृत्ति । प्रमाद के वश अपने स्थान (प्रतिज्ञा) से हट कर अन्यत्र जाने के बाद पुनः अपने स्थान पर लौटने की जो क्रिया है वही प्रतिक्रमण है । इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य ने दो श्लोक उद्धृत किये हैं :
स्वस्थानाद्यत्परं स्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥१॥ क्षायोपशमिकाद्वापि, भावादौदयिकं गतः।
तत्रापि हि स एवार्थः, प्रतिकूलगमात् स्मृतः ।। २ ।। इसी प्रकार चूर्णिकार ने प्रतिक्रमण का स्वरूप समझाते हुए एक प्राकृत गाथा भी उद्धृत की है जिसमें बताया गया है कि शुभ योग में पुनः प्रवर्तन करना प्रतिक्रमण है । वह गाथा इस प्रकार है :3 ।
पति पति पवत्तणं वा सुभेसु जोगेसु मोक्खफलदेसु । निस्सल्लस्स जतिस्सा जं तेणं तं पडिक्कमणं ।। १ ।।
चूर्णिकार ने नियुक्तिकार की ही भाँति प्रतिक्रमक, प्रतिक्रमण और प्रतिक्रांतव्य-इन तीनों दृष्टियों से प्रतिक्रमण का व्याख्यान किया है। इसी प्रकार प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा, शुद्धि और आलोचना का विवेचन करते हुए आचार्य ने तत्तद्विषयक कथानक भी दिये हैं। प्रतिक्रमणसम्बन्धी सूत्र के पदों का अर्थ करते हुए कायिक, वाचिक और मानसिक अतिचार, ईर्यापथिकी विराधना, प्रकामशय्या, भिक्षाचर्या, स्वाध्याय आदि में लगने वाले दोषों का स्वरूप समझाया गया है। इसी प्रसंग पर चार प्रकार की विकथा, चार प्रकार का ध्यान, पाँच प्रकार की क्रिया, पाँच प्रकार के कामगुण, पाँच प्रकार के महाव्रत, पाँच प्रकार की समिति, परिष्ठापना, प्रतिलेखना आदि का अनेक आख्यानों एवं उद्धरणों के साथ प्रतिपादन किया गया है। एकादश उपासकप्रतिमाओं का स्वरूप समझाते हुए चूर्णिकार ने 'एत्थं कहवि अण्णोवि. पाढो दीसति' इन शब्दों के साथ पाठांतर भी दिया है। इसी प्रकार द्वादश भिक्षु प्रतिमाओं का भी वर्णन किया गया है : तेरह क्रियास्थान, चौदह भूतग्राम
१. पृ० २०.
२. पृ० ५२.
३. वही.
४. पृ० १२०.
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