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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
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एवं गुणस्थान, पंद्रह परमाधार्मिक, सोलह अध्ययन ( सूत्रकृत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययन ), सत्रह प्रकार का असंयम, अठारह प्रकार का अब्रह्म, उत्क्षिप्तना आदि उन्नीस अध्ययन, बीस असमाधि स्थान; इक्कीस शबल (अविशुद्ध चारित्र), बाईस परीषह, तेईस सूत्रकृत के अध्ययन ( पुंडरीक आदि ), चौबीस देव, पचीस भावनाएँ, छब्बीस उद्देश ( दशाश्रुतस्कन्ध के दस, कल्प - बृहत्कल्प के छ: और व्यवहार के दस ), सत्ताईस अनगार - गुण, अट्ठाईस प्रकार का आचारकल्प, उनतीस पापश्रुत, तीस मोहनीय-स्थान, इकतीस सिद्धादिगुण, बत्तीस प्रकार का योगसंग्रह आदि विषयों का प्रतिपादन करने के बाद आचार्य ने ग्रहणशिक्षा और आसेवनशिक्षा- - इन दो प्रकार की शिक्षाओं का उल्लेख किया है और बताया है कि आसेवनशिक्षा का वर्णन उसी प्रकार करना चाहिए जैसा कि ओघसामाचारी और पदविभागसामाचारी में किया गया है: आसेवणसिक्खा जथा ओहसामायाए पयविभाफसामाचारीए य वण्णितं । २ शिक्षा का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए अभयकुमार का विस्तृत वृत्त भी दिया गया है। इसी प्रसंग पर चूर्णिकार ने श्रेणिक, चेल्लणा, सुलसा, कोणिक, चेटक, उदायी, महापद्मनंद, शकटाल, वररुचि, स्थूलभद्र आदि से संबंधित अनेक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक आख्यानों का संग्रह किया है । अज्ञातोपधानता, अलोभता, तितिक्षा, आर्जव, शुचि, सम्यग्दर्शनविशुद्धि, समाधान, आचारोपगत्व, विनयोपगत्व, धृतिमति, संवेग, प्रणिधि, सुविधि, संवर, आत्मदोषोपसंहार, प्रत्याख्यान, व्युत्सर्ग, अप्रमाद, ध्यान, वेदना, संग, प्रायश्चित्त, आराधना, आशातना, अस्वाध्यायिक, प्रत्युपेक्षणा आदि प्रतिक्रमणसम्बन्धी अन्य आवश्यक विषयों का दृष्टान्तपूर्वक प्रतिपादन करते हुए प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन का व्याख्यान समाप्त किया है । आत्मदोषोपसंहार का वर्णन करते हुए व्रत की महत्ता बताने के लिए आचार्य ने एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है जिसे यहाँ देना अप्रासंगिक न होगा । वह श्लोक इस प्रकार है :
वरं प्रविष्टं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः परिशुद्धकर्मणो, न शीलवृत्त स्खलितस्य जीवितम् ॥ १ ॥ अर्थात् जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर लेना अच्छा है किन्तु चिरसंचित व्रत को भंग करना ठीक नहीं । विशुद्धकर्मशील होकर मर जाना अच्छा है किन्तु शील से स्खलित होकर जीना ठीक नहीं ।
१. दस उद्देसणकाला दसाण कप्पस्स होंति छच्चेव ।
दस चैव य ववहारस्स होंति सव्वेवि छब्बीसं ॥ - पृ० १४८.
२. पृ० १५७ -८.
३. पृ० २०२.
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