________________
२८२
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास उनके अतिचार, दस प्रकार के प्रत्याख्यान, छः प्रकार की विशुद्धि, प्रत्याख्यान के गुण और आगार आदि का विविध उदाहरणों के साथ व्याख्यान किया गया है । बीच-बीच में यत्र-तत्र अनेक गाथाएँ एवं श्लोक भी उधृत किये गये हैं। अन्त में प्रस्तुत संस्करण की प्रति के विषय में लिखा गया है कि सं० १७७४ में पं० दीपविजयगणि ने पं० न्यायसागरगणि को आवश्यकचूर्णि प्रदान को : सं० १७७४ वर्षे पं० दीपविजयगणिना आवश्यकचर्णिः पं० श्रीन्यायसागरगणिभ्यः प्रदत्ता।
आवश्यकचूर्णि के इस परिचय से स्पष्ट है कि चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर ने अपनी प्रस्तुत कृति में आवश्यकनियुक्ति में निर्दिष्ट सभी विषयों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है तथा विवेचन की सरलता, सरसता एवं स्पष्टता की दृष्टि से अनेक प्राचीन ऐतिहासिक एवं पौराणिक आख्यान उद्धृत किये हैं । इसी प्रकार विवेचन में यत्र-तत्र अनेक गाथाओं एवं श्लोकों का समावेश भी किया है। यह सामग्री भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
१. पृ. ३२५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org